क्या लिखना चाह

 
क्या लिखना चाह रहा था और क्या लिख दिया। अब भी आखिरी दो शे’र छोड दें तो …..
सैलाब दर सैलाब से ये गुमां हो रहा है।।
दरिया अपनी औक़ात से उर्यां हो रहा है।।
नबी के प्यारों की प्यास तो ना मिटा सका,
अब अपनी नाकामी पे पशेमां हो रहा है।।
ये जो ”छायी है गम की घटाएं चहार सू,”
चश्मेतर से आतशजदा दिल धुआं हो रहा है।।
सियाह लिबास में मातमजदा हैं वो तमाशबीन,
जिन्हें यादे कर्बला आज भी मज्मा हो रहा है।।
सूखते ही नहीं ग़मज़दा बादलों के आंसू
आसमां भी सरगिरां सरगदां हो रहा है।।
रगों में भरी है बारूद और जिस्म में शोले,
शोलाफि़गन शजर पे आशियां हो रहा है।।
सुखों की छांव के बादल कब के छंट गये,
अब काफि़ला-ए-मुसीबत आसमां हो रहा है।।
उनको भी खुदा ने दिया नहीं दिल कोर्इ और,
‘ज़मीर’ भी कहां हमनवा हमजुबां हो रहा है।।
हुकमसिंह ज़मीर