मंदाकिनी पार्ट 24
व्हिस्परिंग टॉरेंट्स कैंम्पिंग रिसॉर्ट से निकलते-निकलते दस बज चुके थे। महानवमी के बाद आज फिर मैं शेखर के साथ जीप में आगे वाली सीट पर थी और चांदनी भी रास्ता बताने के लिये एक पांव बाहर और दाहिना हाथ मेरे कंधे के पीछे किये हुए आगे ही बैठी थी। इसलिये मुझे शेखर से सट कर बैठने की विवषता थी। मावठ की छींटों से नहाई हुई पत्तियों को हवा चूमती हुई मेरे मन की उमंगों से भी अठखेलियां कर रही थी। पहाड़ी घुमावों पर बार-बार गियर बदलने से शेखर का हाथ मेरे घुटनों को छू कर मेरी उमंग को और भड़का जाती थी जिससे ठण्ड़क का गुलाबीपन मेरे चेहरे, कपोल और आंखों में गहराता जा रहा था।
कार्यक्रम के अनुसार कैम्पटी झील जो व्हिस्परिंग टॉरेंट कैम्पिंग रिसॉर्ट के समीप ही था उसे सबसे अंत में शांम को लौटते हुए देखने का निर्णय लिया। इसलिये उस दिन के कार्यक्रम में सब से पहले बेनोग हिल पर ज्वाला मंदिर से प्रारंभ कर वापसी में रास्ते में आने वाले क्लाउड्स एंड़, सर जॉर्ज एवरेस्ट हाउस, कार्ट मैंकेंजी रोड़ पर नाग मंदिर, मालरोड़ पर झूला घर से केबल कार में गन हिल और समय बचा तो केमल बेक रोड़ पर ‘सन सेट प्वाइंट’ तक घुड़ सवारी के बाद वापसी में संतुरा देवी मंदिर होते हुए कैम्पिंग रिसॉर्ट से राघव भैय्या और अंजली भाभी को ले कर लखवाड़ में शरदोत्सव में पहुंचेंगे।
कैम्पिंग रिसॉर्ट से लायब्रेरी चौक तक चांदनी अपनी गढ़वाली में ट्यूरिस्ट गाइड की तरह उन जगहों और रास्तों के बारे में बताती रही जिन पर चल कर पिछले दिन आते हुए मैंने शेखर से हमारे भविष्य के बारे में स्पष्ट बात करने की उधेड़बुन में राघव भैय्या के साथ-साथ चलने के कारण अवसर न मिलने से खीझते हुए देखे थे। ये दूसरा अवसर था कि मैं शेखर के इतने समीप थी और मेरे प्रष्नों के उत्तर में शेखर के शब्दों को उनके चेहरे पर आने वाले भावों की कसौटी से परख सकती थी लेकिन चांदनी तो उस दिन जैसे अपने अंदर भरी हुई समस्त भावनाओं को बाहर निकाल फेंकना चाहती थी। लेकिन चांदनी की बातें समाप्त ही नही हो रही थी, किसी दृष्य या स्थान पर बात समाप्त होती तो कोई पहाड़ी गीत शुरू हो जाता। उस गुलाबी मौसम में मेंहदी रंग की टीषर्ट पर कांधे से गले में क्रीम कलर के पुलोवर के बाजू की एक नॉट लगाये, पर्थ फेल्ट केप और रे बेन के एविएटर गोगल्स में शेखर का आकर्षण कई गुणा बढ़ गया था।
लायब्रेरी चौक से थोड़ा आगे पष्चिम में जाने पर बाईं तरफ देहरादून से आने वाला रास्ता जहां हाथी पांव सामने सर जॉर्ज एवरेस्ट हाउस की ओर जाने वाला और उसके पास से ज्वाला देवी मंदिर को बेनोग टिब्बा जाने वाला व्हिस्लिंग वुड्स का रास्ता शुरू हुआ जो आगे संकरा होता जा रहा था। दाहिनी ओर घने पेड़ों की झिर्रियों से सुरम्य घाटी में छोटे-छोटे गांवों में घरों से उठते धुंआ से निर्मित बादल और पत्तों से बहती हवा में आ रही आवाज़ में वहीं रूक जाने का आमंत्रण मिल रहा था। हाथी पांव से वाइल्ड लाइफ सेंचूरी वन विभाग मसूरी रेंज की अढ़ाई-तीन किलोमीटर कर दूरी में शेखर का धीरे-धीरे जीप चलाते हुए पृकृति को निहारना और चांदनी का बहुत दिनों बाद किसी चिड़िया का पिंजरे से निकल कर चहचहाने जैसा उस स्थान का वर्णन घबराहट और अन्जाने भय से मेरे हाथों में पिघलती बर्फ़ का अहसास दे रहा था। वाइल्ड़ लाइफ सेंचूरी से आगे ज्वालाजी मंदिर तक का रास्ता केवल पैदल यात्रा का होने से जीप केवल पांच सौ मीटर आगे क्लाउंड एंड व्यू पावइंट से आगे नहीं जा सकती थी।
माधव भाई साहब का संदर्भ दिये जाने पर वन विभाग के चौकी प्रभारी ढौंढ़ियाल ने अपने किसी कनिष्ठ साथी को वहां छोड़ा और स्वयं हमारे साथ एक वन रक्षक को हमारा छोटा-मोटा सामान ले चलने के लिये ले कर ज्वालाजी मंदिर की तरफ चले। क्लाउड एंड व्यू प्वाइंट से आगे जैसे-जैसे ज्वालाजी मंदिर की तरफ ऊंचाई पर बढ़ रहे थे, पेड़ कम और हवा तेज होती जा रही थी। बादलों के कारण नीचे घाटी में कुछ नहीं दिख रहा था और शेखर से दो टूक बात करने के मेरे लक्ष्य पर भी चांदनी के साथ नागेष ढौंढ़ियाल भी एक अवरोध बन गये थे। शेखर और ढौंढ़ियाल परस्पर परिचय में व्यस्त थे और चांदनी मेरे मन को टटोल रही थी। देहरादून में रहते हुए मसूरी घूमने आने पर भी बहुत एकांत में होने और वन्य अभ्यारण्य होने के कारण मैं कभी ज्वालाजी मंदिर नहीं आयी थी। मेरी कल्पना में ज्वालाजी मंदिर देहरादून के दुर्गा व काली मंदिरों और सहारनपुर रोड़ पर मां डाट काली मंदिर के समान कोई बहुत बड़े और भव्य परिसर के रूप में था। मैं मन ही मन मां नगरकोट ज्वालाजी का स्मरण करते हुए मेरे और शेखर के बीच संवाद में व्यवधान हटाने की प्रार्थना कर रही थी।
बेनोग पहाड़ी पर पेड़ नहीं थे और समीप आते जा रहे ज्वालाजी मंदिर पर स्थानीय लोगों के जयकारों के साथ मंदिर से घंटियों की आवाज़ आने लगी थी। सामने दिख रहा ज्वालाजी मंदिर समीप आता जा रहा था और कुछ स्थानीय ग्रामीण शरदोत्सव के लिये तैयारी सी कर रहे थे। हम मंदिर पहुंचे और एक साधारण से अर्द्धनिर्मित भवन में सिंहवाहिनी मां दुर्गा की भव्य और सुंदर प्रतिमा बहुत साधारण रूप से स्थापित मंदिर भवन के पास ही एक पेड़ के नीचे बने हुए चबूतरे पर अभयमुद्रा में श्वानवाही भैरव की बहुत प्राचीन प्रतिमा एक रोमांच उत्पन्न कर रही थी। बेनोग पहाड़ी पर एक अन्य छोटे से वॉच टॉवर जैसे पुराने से निर्माण को देख कर मैंने पूछा तो ढौंढ़ियाल ने बताया कि वह एक ऑब्ज़रवेटरी प्वांट है जहां से हिमालय पर्वत श्रंखला की बहुत सी चोटियों का दृष्य देखा जा सकता है। हम ने साथ चल रहे वन रक्षक से पानी ले कर पीया और ऑब्ज़र्वेटरी के पास पहुंचे। एक 12-15 फीट ऊंचा मंच सा बना हुआ जिसकी चौड़ाई में कम लेकिन ऊंची-ऊंची सीढ़ियां चढ़ कर हम एक-एक कर ऊपर पहुंचे। चारों ओर के घने जंगल, दून और यमुना घाटी के अपने परिवेष के अद्भुत विहंगम दृष्य देख कर हम तीनों आत्मविस्मृत थे लेकिन शेखर की दृष्टी दूर बहुत दूर हिमालय पर्वत श्रंखला के षिखरों में भावषून्यता से न मालूम क्या देख रहे थे।
वनपाल ढौंढ़ियाल ने अपने क्षेत्र के प्राकृतिक सौंदर्य की ओर शेखर का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास करते हुए कहा … ‘‘समुद्रतल से 2100 मीटर यानी 6300 फिट की ऊंचाई पर सुंदर हरियाली से घिरी इस बेनोंग पहाड़ी पर नर्म धूप में नहाती दून घाटी के मनभावन नदी-झरनों, फूलों की सुगंध से मदमाती और चिड़ियों के कलरव से गुनगुनाती सुंदरता को छोड़ कर वहां सर्द बर्फीली मौन पहाड़ियों में कहां खो गये शेखर साहब? ये बादलों में बसे हुए गांव, ये षोड़षी किषोरियों के आंचल और अलकों को उड़ाती हवा क्या आप के अंदर के कवि को कुछ कहने के लिये उद्वेलित नहीं कर रही?’’
शेखर ने दूर हिमालय पर्वत श्रंखला की तरफ देखते हुए ही भावषून्य हो कर कहा … ‘‘ढौंढ़ियाल साहब, मसूरी में आये अभी चार महीने भी नहीं हुए मुझे, लेकिन पिछले चार हफ़्तों में जितना यहां और यहां के लोगों की प्रकृति को समझ पाया तो इन सब से इतना एकात्म पाता हूं कि अगले चार महीने बाद यहां से जाने के बाद भी मैं यहीं कहीं रह जाऊंगा।’’
मैं अभी सोच ही रही थी कि शेखर ने ये शब्द वनपाल ढौंढ़ियाल से कहे थे या मुझे? इसी बीच शेखर ने बात बढ़ाते हुए ढौंढ़ियाल से कहा … ‘‘लेकिन अभी तो मैं ये सोच रहा हूं कि मां ज्वालाजी का ये स्थान तो प्राचीन बताया जाता है लेकिन प्रतिमा और मंदिर का भवन तो बिल्कुल नया है?’’
शेखर के प्रष्न का कोई उत्तर नहीं दे सके ढौंढ़ियाल ने पल्ला झाड़ते हुए कहा … ‘‘देखो साहब!! मैं भी माधव साहब के साथ ही षिवालिक पर्वत श्रंखला के राजाजी नेषनल पार्क के इस बेनोग वन्यजीव अभयारण्य में स्थानांतरित हो कर पहली बार वन विभाग की इस मसूरी रेंज में आया हूं और अभी एक अभियान के तहत मैं यहां के वन्य जीवों की गणना के कार्य में व्यस्त हूं। इतना बता सकता हूं कि मेरे क्षेत्राधिकार के ग्यारह किलोमीटर के तीन सौ चालीस हेक्टेयर में फैला हुआ ये भव्य स्थान मसूरी के सबसे आकर्षक स्थानों में से एक है। यह क्षेत्र अभी तक 1983 में स्थापित राजाजी नेषनल पार्क की मसूरी रेंज में आरंभिक रूप से एक चौकी ही है जो वन्य जीवों की गणना और अन्य औपचारिकताओं के बाद जल्दी ही वन्यजीव विहार के रूप में क्रमोन्नत कर दी जाएगी। यहां टाइगर, पैंथर, तेन्दुआ, भालू, घुरल, काकड़, चीतल, सियार, लोमड़ी, सूअर के अतिरिक्त विलुप्त होती जा रही जंगली लाल बिल्ली का यह आश्रय स्थल है। पक्षियों में तीतर, बटेर, जंगली मुर्गा, काकातुआ, पहाड़ी तोता-मैना है और लगभग विलुप्त हो चुका माउंटेन क्लेल भी यहां देखा गया है। इनके अतिरिक्त सरीसृपों में कोबरा, अजगर और मॉनिटर छिपकली की प्रजातियां भी यहां देखी गयी हैं। पेड़ पौधों की बात करें तो इस क्षेत्र में देवदार, कैल, चीड़, बांस, बुरांस के अतिरिक्त बहुत सी औषधीय वनस्पती भी है और ….।’’
नागेश ढौंढ़ियाल न मालूम कितना अपना ज्ञान और बघारते लेकिन उनकी बात काटते हुए मैंने चांदनी से कहा … ‘‘चांदनी तुम तो यही की रहने वाली हो, तुम बताओ!! और सुन, गढ़वाली में नहीं हिंदी में ही बताना।’’
अपनी बात कट जाने से नागेष ढौंढ़ियाल थोड़ा क्षुब्ध हुए लेकिन मेरी बात पर हंस पड़े शेखर के साथ उन्होंने भी हंसने का दिखावा किया। तब चांदनी ने बहुत मासूमियत से मुंह बनाते हुए कहा … ‘‘षेखर हजूर ठीक कह रहे हैं दीदी। दाजू बताते हैं कि मैं तो तब एक साल की बच्ची थी। कहते हैं यहां नौ कबीले थे जो आपस में बहुत लड़ते थे। एक दिन न मालूम कहां से एक योगी आया और उसने उन सब को अपनी-अपनी लाठियों के साथ बुलाया। जब वे आये तो योगी ने उन से लाठियां लेकर आग लगा दी। सम्मिलित रूप से जलती हुई लाठियों की ज्वाला बहुत तेज हुई तो योगी ने उन लाठियों को अलग-अलग कर दिया। ऐसा करने पर लाठियों की लपट कम हो कर बुझने लगी तब साधू ने उन लाठियों को फिर से एक साथ मिला दिया जिससे ज्वाला तेज हो कर भभक उठी।’’
इतना कह कर चांदनी चुप हो गयी तब अंदर से क्षुब्ध नागेष ढौंढ़ियाल ने कुछ न समझते हुए उत्सुकता से पूछा … ‘‘फिर क्या हुआ?’’
चांदनी ने बड़े रहस्यमय तरीके से हंसते हुए कहा … ‘‘बस, फिर वो योगी बिना किसी से कुछ कहे वहां से चले गये।‘’
क्षुब्ध नागेष ढौंढ़ियाल के सब्र का बांध अंततोगत्वा टूट गया तो उन्होनंे खीझते हुए पूछा … ‘‘इस कहानी का मां ज्वालाजी से क्या लेना देना है?’’
तब शेखर ने ढौंढ़ियाल का कंधा थपथपाते हुए कहा … ‘‘ढौंढ़ियाल साहब, आप तो नहीं समझे लेकिन वो नौ कबीलों के मुखिया समझ गये कि अलग-अलग रहने से उनका तेज कम हो कर समाप्त हो जाएगा और एक साथ रहने पर उनके तेज की ज्वाला …..।’’
शेखर की बात काटते हुए चांदनी ने इठलाते हुए कहा … ‘‘उई शाबा रे बाबा उई शाबा!! और तब उन नौ मुखियाओं द्वारा जुलाई 1971 में नौ अलग-अलग शक्तिपीठों से ज्योति लायी जा कर मां दुगा की प्रतिमा पूर्ण विधि विधान से स्थापित की गयी। तब से यह ज्वालाजी मंदिर के नाम से जाना जाता है और अब हर साल यहां अक्टूबर के अंतिम दो दिन में भण्ड़ारा होता है।’’
ढौंढ़ियाल ने चांदनी के इठलाने को अपनी नासमझी पर व्यंग समझते हुए चांदनी को घेरने का प्रयास करते हुए पूछा … ‘‘अच्छा!! फिर उस योगी का क्या हुआ? क्या वो अंतर्ध्यान हो गया? उसे ज़मीन खा गयी या आसमान निगल गया?’’
बहुत गम्भीर और गूंजती हुई आवाज़ में उत्तर शेखर ने दिया … ‘‘ना ज़मीन खा गयी ना आसमान निगल गया, वो योगी अपनी गुफा में चला गया और समाधि में लीन हो गया।’’
हम सभी का ध्यान शेखर की वाणी और मुखमुद्रा में बंध के रह गया। ढौंढ़ियाल ने अपनी स्मृति पर जोर देते हुए कहा … ‘‘लेकिन शेखर साहब!! यहां आते ही मैंने अपने एरिया ऑफ रेस्पॉसिबिलिटी का पूरा भ्रमण किया है लेकिन यहां तो कोई गुफा नहीं है। हां परी टिब्बे पर बहुत पहले यूरेनियम की खोज में खुदाई के कारण एक सुरंग ज़रूर है।’’
शेखर की वाणी में गम्भीरता की गूंज यथावत रही और शून्य में किसी रहस्य को देखते हुए उन्होंने कहा … ‘‘मनुष्य केवल अपने संज्ञान में आ गयी जानकारियों को ही ज्ञान की इतिश्री मानता है जबकि प्रकृती रहस्यों का एक सर्वकालिक अनसुलझा जाल है और रहेगा। चलिये हम वो गुफा ढूंढते हैं।’’
मुझे शेखर के षिव और योगी के प्रति समर्पण से ईर्ष्या और हमारे बारे में दो टूक बात करने के खिसकते जा रहे अवसर को लेकर अब एक खीझ भी होने लगी थी। मैं अपनी खीझ प्रकट करती उससे पहले ढौंढ़ियाल ने शेखर को मुख्य विषय की ओर लाते हुए कहा … ‘‘आप जिस आत्मविष्वास से कह रहे हैं तो निष्चित ही यहां गुफा होगी लेकिन उसे ढूंढनें का काम हम पर छोड़ दीजिये। आप तो इस मौक़े और दस्तूर में डूबी कोई ग़ज़ल सुना दीजिये।’’
वनपाल ढौंढ़ियाल ने बात मेरे मन की कही थी लेकिन चांदनी ने मेरे शब्द लपकते हुए चहक कर कहा … ‘‘हां हजूर, कुछ ऐसा कि धरती की इस गोद में हमारी भी उपस्थिति अंकित हेा जाए।’’
और उस वातावरण में भीगे हुए शेखर के शब्दों ने बहती हुई हवा के साथ फुहार बन कर चांदनी की तरफ बरस कर मुझे अंदर तक ठिठुरा दिया।

आपकी मौज़ूदगी से ये क़ुदरत खिलखिला रही है।
पत्ति पत्ति नाच उठी हवा भी कुछ सुना रही है।।
देखो वो पहाड़ों ने फ़ख़्र से ऊंचे कर लिये सर,
वो अंबर झूम रहा है ये धरती गुनगुना रही है।।
तुम आये तो ये जगह भी आम से ख़ास हो गयी,
अपनी किस्मत पे ये जगह आज इतरा रही है।।
फूलों से लदी झुकी शाखें और नवा ए अन्दलीब,
गोया कोई माषूक़ अपने आशिक़ को बुला रही है।।
बादलों की तरह उडता हुआ आंचल लहराती ज़ुल्फें़,
हवाएं दे के झौंटे झुमकों को झूला झुला रही है।।
ये हवा ये वादियां, मचलती लहरें, गीत गाती चांदनी,
इशारों को समझो, चलो आवारगी बुला रही है।।
शेखर की काव्य सुधा में डूबे वनपाल नागेष ढौंढ़ियालने प्रषंसा करते हुए कहा … ‘‘वाह शेखर साहब, बहुत ख़ूब। आप ने यहां की वादियों की खूबसूरती में इन दोनों देवियों की उपस्थिती का रंग भर दिया और ख़ुद की यायावरी को आवारगी नाम दे कर इस मौसम के आमंत्रण से विरक्ती का संदेष भी दे दिया। मैं आप की यायावरी का आव्हान करता हूं कि जब तक आप मसूरी में हैं जब समय मिले, यहां चले आईये। मुझे आप के सानिध्य में बहुत कुछ सीखना है।’’
फिर नागेष ढौंढ़ियाल ने हाथ से एक तरफ संकेत करते हुए कहा … ‘‘और दखियेे वो सामने जॉर्ज एवरेस्ट हाउस दिख रहा है जो मेरे ऑफिस से वापस पीछे हाथी पांव तक जा कर वहां से दाहिने घूम कर जाना होगा। वहां तक मेरा क्षेत्राधिकार है और मैं वहां तक आप का सहयात्री रहूंगा वरना माधव साहब मेरी क्लास ले लेंगे।’’
नागेष ढौंढ़ियाल की बात पर मैं धीरे से मुस्कुरा के रह गयी और उन्होंने अपनी बात जारी रखते हुए पष्चिम दिषा में दूर एक पहाड़ी की तरफ संकेत कर के कहा … ‘‘लेकिन यदि संभव हो और आप रहस्यों को सुलझाने में रूचि रखते हैं तो मसूरी धनौल्टी रास्ते पर धोबी गांव से परी टिब्बा नाम की उस पहाड़ी पर अवष्य जाईयेगा जिसे लोग भुतहा पहाड़ी कहते हैं। और इसी पष्चिमी क्षेत्र में पहाड़ी चोटी पर भगवान बालभद्र को समर्पित भद्रज मंदिर अवष्य जाईयेगा। वहां से दून घाटी, चकराता, गढ़वाल और सब से अधिक रूचिकर बात ये कि हिमालय पर्वत श्रंखला का अद्भुत दर्षन वहां से होता है।’’
दोपहर के लगभग बारह बज चुके थे। भूख लगने लगी थी लेकिन हम साथ में तो कुछ लाये ही नहीं थे। ठण्ड़े होते जा रहे मौसम में प्यास भी कम ही थी और मैं माधव भाईसाहब के अधीनस्थ अधिकारी को संकोच के कारण कुछ भी नहीं कह पा रही थी। ऐसे में चांदनी की मासूमीयत ने मेरे शब्दों को स्वर दिये और चांदनी ने इठलाते हुए नागेष ढौंढ़ियाल को लक्षित करते हुए मुझ से कहा … ‘‘दीदी, सुबह से निकले हैं और दोपहर हो गयी। मुझे नहीं पता आप लोगों को भूख लगी या नहीं? या लगती भी है या नहीं? ज्वालाजी माई बाबा गोरक्षनाथ की खिचड़ी नहीं पका सकी तो गांव वालों की खीर पता नहीं कब पकेगी, लेकिन आप तो पहाड़न बच्ची पर तरस खाओ और कुछ …!’’
वनपाल नागेष ढौंढ़ियाल ने अपने सहायक को संकेत किया तो वो तेजी से वहां से चला गया तो हम से कहा … ‘‘यहां मसूरी में तो लगभग सभी जगह ग्रामीणों द्वारा शरद पूर्णिमा उपलक्ष्य में मध्यरात्रि को चंद्र किरणों के अमृत से सिक्त खीर से ही मध्यरात्रि में उपवास खोले जाने की परंपरा है तथापि यह परंपरा सब पर बाध्य नहीं है।
फिर नीचे क्लाउड़ एंड व्यू प्वाइंट रिसॉर्ट की तरफ संकेत करते हुए किसी फौजी कमांडर की तरह कहा … ‘‘खाना यहां से आधा घंटे की दूरी पर है, इस दूरी को कम करना हमारे यहां से चलना प्रारंभ करने और वहां तक पहुंचने की गति पर निर्भर करेगा।’’
इतना कह कर चांदनी को लक्षित कर व्यंग से बोले … ‘‘निर्णय आप को करना है कि …।’’
चांदनी तो जैसे नागेष ढौंढ़ियाल की हर बात को काटने का मन बना चुकी थी। उसने चुनौती देते हुए कहा … ‘‘मैं इन्हीं पहाड़ों में जन्मी और यहां के झरनों के साथ गिरते, देवदारों के साथ उठते, नदियों के साथ गुनगु
नाते, पक्षियों के साथ गाते, फूलों के साथ हंसते और हिरनियों के साथ भागते-दौड़ते बड़ी हुई हूं। आप आधे रास्ते भी नहीं पहुंचोगे और मैं अरूणिमा दीदी को ले कर हवा के साथ … ये चली।’’
शेखर चांदनी की चंचलता पर मुस्कुराने लगे, नागेष ढौंढ़ियाल कुछ प्रतिक्रिया कर पाते और मैं ना-नुकर करती उससे पहले चांदनी मेरा हाथ पकड़ कर बहते हुए पानी की तरह बेनोग पहाड़ी से उतरने लगी।
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