भावनाओं का ज्वार लिये

ह्रदय में
भावनाओं का ज्वार लिये
उदर में
हिलोरें लेता संसार लिये
कटी जिव्हा पर
अगणित उद्गार लिये
मैं घूंघट ओढ़े
मुख बाधित रही जब तक
गर्व से गर्दन उठाये
ह्रदय के समीप
तुम्हारे वक्ष से सटी रही
तुमने जब जब
मेरे मुख से
घूंघट पट हटाया
तुम्हारी
अंगुलियों की छुअन से
हर बार
मेरे अन्दर
विचारों के भ्रूण
पल्लवित होते रहे
मैं श्रद्धा से
नतमस्तक होकर
प्रेम कलेवर में
समर्पित होती रही
लेकिन
तुम भरते रहे मुझमें
कभी कलुषित गरल
तो कभी डुबोते रहे
मुझे सियाह अंधकूप में
तुम्हारे उलझे हुए स्वप्न
दबी हुई कुण्ठाएं
मेरा कण्ठ
भींचती दबाती रही
मुझे घसीटती रही
और
मेरा आर्तनाद
मेरी पीड़ा
शब्द बन कर
कागज पर बिखरते रहे
कागज पर बिखरते रहे।।
हुकम सिंह जमीर
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