मंदाकिनी पार्ट 2 व 3
मित्रों,
मित्रों के इनबॉक्स और वाट्सएप मेसेज के आग्रह पर मंदाकिनी पार्ट 2 में यह संशोधन किया है। अब तक आप ने पढा कि
जल्दी जल्दी बोलने से मेरी सांस थोडी तेज हो गयी थी। शेखर ने बडे शांत और भाव से पानी की बोतल मेरी तरफ बढाते हुए रहस्यपूर्ण वाणी में कहा ‘‘ये सूचना है या अगली पिकनिक के आमंत्रण की घोषणा?’’
अब आगे …
डाॅली और राहुल ने हुर्रे का उद्घोष किया और सब लोग हंस पडे तो मैं शेखर की चतुराई पर झेंप कर रह गयी तो अंजली भाभी भी आग में घी डालते हुए बोली … ‘‘शेखर भैय्या, पिकनिक को क्लास बना देने के लिये दो षिक्षिकाएं क्या कम थी जो आप भी प्रिंसिपल बन गये? आप कोई ऐसी कविता सुनाते कि वो देहरादून की इस घाटी के रंग उसके सामने फीेके होते। हिमालय की इस सुरम्य घाटी में आज आप जैसा कवि और अरूणिमा जैसी चित्रकार के होने पर भी बोझिल इतिहास ही पढना है तो ईश्वर फिर से स्वप्न में भी ऐसी पिकनिक पर न ले जाए।’’
शेखर तो जैसे हर विषय को किसी अलोकिक जगत से संबद्ध कर देने का संकल्प लिये हुए थे। वे जिस भावभंगिमा में बोले तो उनके शब्द कहीं दूर से आते प्रतीत हुए … ‘‘अंजली भाभी, मेरे स्वप्न रंगों पर आश्रित नहीं हैं इसलिये मैं रंगीन स्वप्न नहीं देखता।’’
इस पर मीना को जैसे अवसर मिल गया और चुनौतीपूर्ण शब्दों में बोली … ‘‘हां हां कोई स्वप्न देखे तो सही। देहरादून में रंग, रंगीनियों और रंगकर्मियों की कहां कमी है। यहां के रंग कभी फीके नहीं हो सकते।’’
मेरा भी रंगशिल्पी होने का दर्प आहत हुआ था या सच कहूं तो मैं भी शेखर को चुनौती देना चाहती थी। मैंने कहा … ‘‘आप अपना स्वप्न तो बताईये, हम भी अपने सामर्थ्य का परीक्षण कर लेंगे।’’
शेखर ने बहुत सहजता से कहा … ‘‘सत्य कल्पनाओं से सदा सर्वदा अधिक आश्चर्यजनक होता है। चुनौतियां जीवन को कठिन अवश्य बना देगी किंतु साहस की सर्वकालिक संपति भी चुनौतियों का ही प्रसाद है।’’
अब राघव भैय्या ने आदेशात्मक रूप से कहा … ‘‘अरे यार, इन भारी भारी बातों से सर दर्द हो गया, अब कोई स्वप्न दिखा या कविता सुना जो मन का भार कम हो।’’
लेकिन शेखर ने तो जैसे मेरी ही बात सुनी थी सो मुझे लक्ष्य कर के बोले … ‘‘तो अरूणिमा अपने सामर्थ्य की परीक्षा के लिये तैयार है?
मैंने कहा … ‘‘हां, अपने पूर्ण विष्वास के साथ।
शेखर ने कविता प्रारंभ करते हुए कहा … ‘‘तो सुनो …
अक्सर मेरे स्वप्न में चले आती है
शरद पूर्णिमा की झिलमिल चांदनी
मिश्री के उत्तुंग षिखरों से गिरते
पयस प्रपातों की सरगम पे रागनी
क्षीरसिंधु में नहाए हुए श्वेत कपोत
रजत उडनखटोले सम एक बादल
मुझ पर छाया करते हुए चलता है
मंदाकिनी का उडता धवल आंचल
नरम कपास के पथ पर बिछे हुए हैं
चम्पा चमेली जूही मोगरा रात रानी
रजत अंदु बांधे नृत्य रत श्वेत शिखि
श्वेतशुक के गीत करते मेरी अगवानी
श्वेत शशक श्वेत सारंग करते स्पर्धा
कौन पहले पहुंचा पायेगा मेरा संदेश
जहां झील में एक हिमखंड पर बैठी है
मेरी प्रियतमा सितारों से सजाए केश
सरगम की मध्यम सप्तक है गतिमान
इंग वल्लकी पर भुज मृणाल वल्लरी
उचरंगी कम्पित अधरों की देहरा दूनी
शिवालय में वंशी मृदंग शंख झल्लरी
चॅंद्र घट से चांदनी सिक्त मधु की बूंदे
अंबरसाफी के तारिका छिद्रों से छन कर
भिगो रही बरस बरस कर तन और मन
शीतल मंद मंद हवा चुभती तीर बन कर
झील में कर रहे किलोल हंस के जोडे
श्वेत कंवल पांखुरियों से मोती चुगकर
मेरे स्वागत को आतुर, सिमटे सकुचाए
करते अभिनंदन अविराम नयन झुककर
सब मंत्रमुग्ध हो कर सुन रहे थे। शेखर इतनी कविता सुना कर मौन हो गये तो मीना ने पानी आगे बढा कर बडी शालीनता से कहा …
‘‘कविराज, थोडा जल पी कर अपनी काव्य सुधा सरिता में से हमें और दो चसक पीने दीजिये और आप के स्वप्न में रंग तलाश रहे हमारे मन की तरंगों को झंकृत रखिये।’’
मीना की छोटी बहन डाॅली ने कहा … ‘‘कुछ समझ आई, कुछ नहीं आई! लेकिन …’’
डाॅली का वाक्य पूरा किया राहुल ने … ‘‘लेकिन आनंद बहुत आया।’’
शेखर ने पानी पीना चाहा तो वाॅटर बोटल खाली थी। संकेत में ही व्यंग की विधा उस दिन शेखर से सीखी। मीना अपराधबोध से पानी लेने जाने लगी तो डाॅली और राहुल वाॅटर बाॅटल ले कर पानी ले कर चले गये।
राघव भैय्या ने शेखर को मित्रवत उकसाते हुए कहा … ‘‘अरे आगे क्या हुआ, सपना पूरा बताओ यूं बीच में मत छोडो, पाप लगता है।’’
अंजली भाभी ने भी बडे अपनेपन से कहा … ‘‘बताओ ना भैय्या, आगे क्या हुआ?’’
शेखर जैसे मानव मन के मर्मज्ञ थे, वे जानते थे कि किसी की व्याकुलता को अकुलाहट में कैसे परिवर्तित कर सकते हैं। चुनौती का स्मरण कराते हुए बोले … ‘‘बात मेरे स्वप्न में रंग भरने की थी, क्या देहरादून की रंगीनियों और रंगकर्मियों के पास वो रंग है जो इस स्वप्न में रंग भर सकें?’’
शेखर ने एक ही शब्दबाण से सबको वेध दिया था किंतु मैं जानती थी कि लक्ष्य मैं हूं। मैंने अनुनय करते हुए कहा … ‘‘ हे एक ही तीर से अनेक लक्ष्य साधने वाले बर्बरीक, हम पर कृपा करें। पारस किसी को भी स्वर्ण बना सकता है किंतु कोई भी तत्व पारस नहीं बना सकता जैसे गंगा में मिलकर कोई भी जलराशि गंगा ही कि तरह पवित्र हो जाती है किंतु …’’
मेरी बात काटते हुए शेखर ने कहा … ’’और इसीलिये सदाशिव शेखर ने गंगा को मंदाकिनी रूप में अपने शीश पर धारण किया है।’’
मैं कुछ कहती उससे पूर्व ही राघव भैय्या ने झुंझलाते हुए कहा … ‘‘अरे यार शेखर!!! तुम फिर कहां चले गये, लौट आओ लौट आओ।’’
अंजली भाभी ने हम तीनों को लक्षित कर के कहा … ‘‘मीना, अरूणिमा तुम दोनों के बोलते ही विषयांतर हो जाता है, इसलिये तुम चुप ही रहो। और बताओ ना भैय्या, फिर क्या हुआ?
मैनें और मीना ने नटखट बच्चों की तरह मुंह पर अंगुली रख कर आगे चुप रहने का सांकेतिक उद्घोष किया तो शेखर ने कविता के रूके हुए प्रवाह को पुनः गतिमान किया।
बिना बोले हम करते रहे बातें देर तक
सहलाती रही मेरा सर गोद में रखकर
हम सुख समाधि में ध्यानस्थ होने लगे
अधरों की बांसुरी पर सजने लगे स्वर
गांठ और बन्धन से न था कोई सरोकार
बंटी हुई रस्सी समान होने लगे एकाकार
तन मन के मिलन में भेद नहीं था कोई,
लिपटे हुए लतावृक्ष सा होने लगा प्रहार
मन मयूर मुदित मुदित प्रेम पयोध पुलकित
सरिता सागर संजोग सम मिली धार से धार
निशब्द संवाद वीथी में हृदय पुष्प अर्पित थे,
श्वास श्वास सृजित करने लगी सुगन्धित संसार
बिन बासन वारूणी, वसन विहीन दमकी दामिनी,
बन्द दृग दरसते प्रकाश कर्ण सुने वीणा झन्कार
मद्यप्रपात सा स्पंदित हृदय श्वास गंगा के धारे
चट चट चटका धमनियों में उबलता रक्त संचार
पुन्नागस्पर्ष से दरक गयी हिम अरूणा
व्रीडारूणिमा कम्पित कंज अधर थरथर
कंज मुख मणि अधिमुक्तिका लोचन से
कंज कपोल पे बरस रहे, मोती झरझर
तभी झोली में मौक्तिक क्षुधा की राख लिये
एक कलकंठ हंस आ गया याचक बन कर
शेखर की कविता और प्रस्तुति में हम सभी आत्मलीन हो कर अपनी कल्पना में वो सब अपने साथ घटित होने का दृष्य देख रहे थे। तभी किसी के पानी में गिरने का शोर सुनकर काव्य की सरिता का प्रवाह एक बार फिर रूक गया। हम सब भी भाग कर वहां पहुंचे तो देखा कि डाॅली पानी लेते समय पांव फिसलने से गहरे पानी में चली गयी थी। भावावेष में मीना अपनी बहन को बचाने कूद पडी किंतु मैंने बताया कि मीना को तो तैरना ही नहीं आता तो राघव भैय्या और शेखर एक क्षण भी गंवाए बिना पानी में कूदे और राघव भैय्या डाॅली तथा शेखर मीना को बचा कर बाहर लाये।
थोडी देर की अफरा तफरी के बाद सब सामान्य हुआ तो मीना ने दोनों का आभार व्यक्त करते हुए कहा … ‘‘यदि आज आप नहीं होते तो …।’’
शेखर तो बात पूरी होने ही नहीं दी और बोले … ‘‘काश!!! हम नहीं होते।’’
अनेक अर्थों वाले इस छोटे से वाक्य को हम में से कोई नहीं समझ पाया तो मीना बोली … ‘‘तो आप चाहते थे कि हम डूब जाते।’’
शेखर ने रहस्य का पर्दा हटाते हुए कहा … ‘‘आप भी डाॅली और राहुल की तरह बच्चे हो जो नहीं समझ पाये? हमारा तात्पर्य था कि हमारे लिये ये पिकनिक आयोजित हुई, हम नहीं होते तो ये पिकनिक नहीं होती और …।’’
मीना भी बातों में कहां पीछे रहने वाली थी। उसने शेखर की बात काटते हुए कहा … ‘‘ऐसा भी तो हो सकता है कि आप के न होने पर भी हम पिकनिक पर आते और हम डूब जाते।’’
शेखर ने संभवतः पहली बार थोडा हंसते हुए कहा … ‘‘चलो यूं सही, लेकिन अब मत डूब जाना।’’
शेखर के इस कथन में निहित अर्थ को समझते हुए हम सब हंस पडे और इसी तरह हंसते हंसाते खाना खा कर फोटोग्राफी का क्रम चला। शेखर के पास व्यावसायिक फ़ोटोग्राफ़ी वाला रषियन ज़ेनित कैमरा था और मेरे पास मेरी चित्रकारी के काम आने वाला आग़्फा का साधारण सा कैमरा था जिसमें एक सप्ताह पूर्व ही नयी फ़िल्म डाली थी और दस-पन्द्रह फोटो ही शूट किये थे। व्यावसायिक ज़ेनित कैमरे के सामने एक सहज संकोच के कारण मैंने अपना साधारण आग़्फ़ा कैमरा नहीं निकाला। शेखर ने अपने कैमरे से सब के समूह में और अलग अलग बीस पच्चीस फोटो लिये और फ़िल्म समाप्त हो गयी क्योंकि कुछ फोटोज पहले से शूट किये हुए थे। सिर्फ़ शेखर के फोटो नहीं हो पाये तो शेखर
ने कविता करते हुए कहा …
मंदाकिनी के धारे जब तक सृष्टि में रहेंगे।।
ये दृष्य भी मेरी स्मृति और दृष्टि में रहेंगे।।
कोई नहीं समझ पाया शेखर ने परोक्ष भाव में क्या कह दिया था किंतु मंदाकिनी शब्द से मेरा हृदय एक बार के लिये जोर से धडक गया। राघव भैय्या दूसरी फ़िल्म लेने के लिये जाने लगे तो मीना ने मुझे छेडते हुए कहा … ‘‘इतने दुखी मत होईये सरकार, हमारी लाडो का कैमरा है तैयार।’’
लेकिन असावधानी से रखे बारिष में भीग चुके कैमरे ने निराष कर दिया तो शेखर ने बडी ही तकनीक से मेरे कैमरे से फ़िल्म निकाल कर अपने कैमरे में डाल ली और अब ज़ेनित एक बार फिर तैयार था। अब मैंने ज़ेनित कैमरे से शेखर के फोटोज लिये और पूरी फ़िल्म शूट कर डाली जो आज तक मेरी स्मृतियों की धरोहर में संचित है।
बहुत सी स्मृतियां समेटे वो यादगार दिन पूरा हुआ। राघव भैय्या और शेखर को राॅल काॅल में पहुंचना था। एक फौजी परिवार से संबद्ध होने से मैं और अंजली भाभी राॅल काॅल के अनुषासन व महत्व को समझती थी। राघव भैय्या और शेखर ने सहस्त्रधारा से ही मसूरी की बस पकड ली और बाकी हम लोग घर आ गये। बस में अंजली भाभी थकान से अनमनी हो कर सुस्ता रही थी और डाॅली और राहुल परस्पर शेखर अंकल ऐसे शेखर अंकल वैसे करते प्रसन्नता से चहक रहे थे।
इधर मीना को अवसर मिलते ही उसने कहा … ‘‘कहो लाडो, कुछ बात बढी?’’
मैंने कहा … ‘‘कहां यार, तू बात बढने ही कहां देती है। हमेंषा दाल भात में मूसरचंद बन कर आ जाती है।’’
मीना ने व्यंग से लंबी ओहो कर कहा … ‘‘ओह्हो, मैं मूसरचंद? वो कैसे भला?
मैंने भी उलाहना देते हुए कहा … ‘‘परसों वहां सदाषिव मंदिर में तू टपक पडी, कलावे बांधने में हुए छलावे को तूने इंगित किया, आज सुबह का सपना तूने तोडा, वहां बारिष में मेरी भावनाएं भीग रही थी तो तू चहकता हुआ सूरज बन कर आ गयी। बस तूने एक उपकार किया …।
प्रवाह में मेरे मुंह से न मालूम क्या निकलने जा रहा था किंतु तुरंत ही मैं संयत हो कर चुप हो गयी तो मीना ने कहा … ‘‘उपकार? कैसा उपकार?
फिर मीना ने किसी अनुभवी छलिया की तरह कहा … ‘‘अच्छा वो तेरी चुन्नी जो मैंने शेखर को दी और उन्होंने ….।
मैंने सकुचाते और शर्माते हुए उसे मुक्के मारते हुए कहा … ‘‘षैतानों की नानी, तू बहुत ख़राब है।’’
मीना ने हंसते हुए कहा … ‘‘अरे लेकिन कहां है वो चुन्नी?’’
मैं हत्प्रभ थी। एक बार फिर मेरी चुन्नी शेखर के पास रह गयी थी। मीना मेरी आत्मविस्मृति पर हंस रही थी।
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पार्ट 3
घर पहुंचे तो मां खाने की तैयारी कर रही थी लेकिन मेरा और अंजली भाभी का कुछ खाने का मन नहीं था। लेकिन मां के हठ के कारण हम दोनों ने दूध के साथ दो-दो बटर टोस्ट और एक-एक सेब खाया और अपने कमरे में आ कर सोने का प्रयास करने लगी। राघव भैय्या के नहीं होने पर अंजली भाभी मेरे ही साथ सोती थी। थकी हुई अंजली भाभी को तो कुछ ही देर में नींद आ गयी लेकिन मेरी चेतना तो सहस्त्रधारा में भीगती हुई शेखर के रेनकोट और उनके रंगहीन स्वप्न की कविता के रंगों में सराबोर हो कर रह गयी थी। नींद बार बार पलकों के द्वार खटखटाती लेकिन मेरे मन और मस्तिष्क के द्वंद्व में वह निसहाय जागते रहने पर विवष थी। मन कहता था शेखर की मुझ में रूचि है किंतु मस्तिष्क तर्क वीथियों से शेखर की स्पष्ट स्वीकारोक्ति के अभाव के तथ्य उठा उठा कर ले आता।
मन और मस्तिष्क के द्वंद्व में पता नहीं मैं कब निढाल हुई और नींद ने मेरी आंखों के द्वारों पर आधिपत्य कर लिया लेकिन मेरी अंतरात्मा न मालूम किस मार्ग से निकल कर मन की हिरनी पर सवार कुलाचे मारती हुई वहां पहुंच गयी जहां बस मैं थी और मेरी एकांतता में मंदाकिनी के कलकल करते जल में उछलती मचलती पूर्ण चंद्र की व्याकुल चांदनी सुधा मेरी अकुलाहट से प्रतिस्पर्धा करती हुई मुझे चिढा रही थी। मन क्रंदन के मौन वुभुकार में मैं ‘षेखर’, ‘शेखर’ पुकार उठी। पवन से छितराए उडते हुए नीरस धवल पयोध के साथ सहस्त्रधारा जल प्रपातों के शोर में मेरी पुकार की प्रतिध्वनि भीग कर मेरी आंखों में छलक गयी। कल रात से आज दिन भर के दृष्य चलचित्र की भांति मेरे चारों ओर लहराने लगे और मेरी दृष्टि को उस षिलाखंड से उठ रहे ओस से भीगे उस उषावर्णी प्रकाषपुंज की अरूणिमा में स्थिर हो गयी। मैं उस अक्स से पूछना चाहती हूं कि वह कौन है तभी ठंडे पानी के छींटों से मेरी आंख खुल जाती है।
अंजली भाभी ने मुझे नटखट भावभंगिमा के साथ छेडकर जगाते हुए कहा … ‘‘उठो अरूणिमा, देखो सूरज देहरादून के उत्तुंग षिखरों पर अपनी अरूणिमा से आसमान को उषावर्णी कर दिया है। मामीजी दो बार आ कर बुला गयी है तुम्हारे जाने का समय हो गया है?’’
मैंने उनकी भावना को समझते हुए कहा … ‘‘आप पर शेखर की कविता का रंग चढ गया क्या? रात को सोई भी थी या नहीं?
अंजली भाभी ने रहस्य उद्घाटित करते हुए कहा … ‘‘तुमने सोने दिया होता तो सोती ना!!!
मैंने आषंकित हो कर पूछा … ‘‘मैंने नहीं सोने दिया? वो कैसे?’
अंजली भाभी ने थोडा धीरे से कहा … ‘‘तुम रात भर शेखर शेखर जो बडबडाती रही।’’
मेरी आषंका सही निकली तो घबराहट में इतना ही बोल पायी … ‘‘भाभी वो …।’’
अंजली भाभी ने मुझे ढाढस बंधाते हुए कहा … ‘‘होता होता है, ऐसे ही होता है। अरे पगली वो तो शेखर का व्यक्तित्व और कल कल के घटनाक्रम में उनकी भूमिका ही ऐसी थी कि किसी पर भी उनका रंग चढ जायेगा। अब तुम स्कूल के लिये जल्दी तैयार हो जाओ नहीं तो मामीजी …।
अंजली भाभी का वाक्य पूरा नहीं हो पाया और अहाते से मां की आवाज़ आई … ‘‘अरूणिमा तुम्हारे बाबूजी ने कहा है कि तुम्हारी तबीयत ठीक न हो तो आज स्कूल से अवकाष ले लेना।’’
अर्थात बाबूजी जा चुके थे। मैंने दीवार पर घडी की ओर देखा तो स्कूल जाने में पन्द्रह मिनट रह गये थे। नयी नयी नियुक्ति पर बिना अनुमति मैं कोई उपालंभ सह भी लेती लेकिन मीना की आंखों का व्यंग सहने की क्षमता मुझ में नहीं थी। मैं जल्दी ही तैयार हो कर स्कूल के लिये रवाना हो गयी। रास्ते में मैं सोच रही थी कि मीना के साथ साथ अंजली भाभी पर भी मेरा रहस्य प्रकट हो गया है। मैं स्कूल पहुंची तो प्रार्थना प्रारंभ हो चुकी थी और मीना ने भी मेरे साथ ही प्रांगण में प्रवेष किया।
कुछ कहे बिना ही हम दोनों ने समझ लिया था कि हम में से कोई भी रात को सोया नहीं है। नयी समय सारिणी के अनुसार हम दोनों के ही सत्र मध्यान्ह अवकाष के बाद थे तो हम स्टाफ रूम में टेबल पर सर रख कर सुस्ताने लगीं लेकिन मुझे प्रयास पूर्वक जागते देख मीना बोली … ‘‘क्या बात है अरूणिमा, नींद आ रही है लेकिन सो नहीं रही?’’
मीना और मेरे मध्य कोई रहस्य रहस्य नहीं रह गया था। उसी विष्वास के चलते मैंने रात को नींद में बडबडाने वाली बात बताते हुए फिर से उसकी पुनरावृति की आषंका जताई तो मीना हंसते हुए बोली … ‘‘तो लाडो शेखर की यादों में डूबी रही इसलिये सो नहीं पायी।’’
मैंने पलट कर वार किया … ‘‘नींद के डोर तो तेरी भी आंखों में हैं, तू कहां डूबी रही जो सोयी नहीं?’’
मीना ने लंबी सांस लेते हुए निराषा का नाटक करते हुए कहा … ‘‘अरे मुझे कौन डूबने देता है? कल डूब जाती लेकिन शेखर ने बचा लिया, आज तूने उबार लिया।’’
मैंने भी नींद को धकियाते हुए कहा … ‘‘अच्छा तो तू आज फिर डूब रही थी?’’
मीना उत्तर देती तभी स्टाफ की दूसरी टीचर्स आ गयीं और हम ने कुषल नाट्यकर्मी की तरह विषय बदल दिया। क्लास में मेरा व्याख्यान ‘कला व कल्पना में संबंध’ पर आधारित था और आज मेरे पास परंपरागत पुस्तकों में पढी हुई विषय सामग्री से इतर इतना कुछ था कि मैं विद्यार्थियों को शेखर के उस अलोकिक शब्दचित्रों के कल्पना जगत में ले गयी जहां कोई कलाकार उसका रेखाचित्र नहीं बना सकता था। पढाते हुए मैं सभी विद्यार्थियों की सम्मोहित आंखें पढ रही थी तो सब उस कल्पना में स्वयं को तलाषते दृष्टिगत हुए। विद्यालय प्रांगण में स्कूल समाप्ती के घंटनाद का स्वर मेरे विद्यार्थियों की कल्पना में तैर रहे मेरे शब्दचित्र के मिश्री के पहाड और दूध के झरनों व झील की तरंगों में डूब कर रह गये थे।
मीना न मालूम कब आयी और उसकी चुटकी ने उस सम्मोहन को तोडा। मैं भी उस कल्पना सागर में यथार्थ की सुरती हुई तो थोडा सकपका गयी लेकिन मीना ने कुषल तैराक की तरह बात संभालते हुए बोली … ‘‘एक कलाकार ही अपनी कल्पनाओं में इस तरह डूबता है कि वो जगत के यथार्थ को भूल जाता है। अब चलिये अरूणिमाजी और बच्चों को भी जाने दीजिये जिनकी स्कूल बस प्रतीक्षा कर रही है।’’
बच्चों की बातों के कोलाहल से गूंजने वाला स्कूल काॅरिडोर आज अनुषासित शांती का पर्याय बन गया था। मैं न मालूम क्यों धीरे चल रही थी तो मीना ने कहा … ‘‘कहां डूबी हो लाडो, मौसम भी बिगड रहा है इतना धीरे चलोगी तो घर पहुंचना मुष्किल हो जाएगा। तुम तो डूबे हो सनम, हम को भी डुबोओगे क्या?’’
मैंने बिना उस की तरफ देखे कहा … ‘‘कोई डूबना भी चाहे तो शेखर डूबने कहां देते हैं?’’
मेरे शब्दों में भरी हुई निस्तब्ध उदासी को मीना ने समझ लिया लेकिन मुझसे स्पष्टीकरण मांगते हुए पूछा … ‘‘अर्थात?’’
मैंने सीने में घुटी हुई सांस थोडी लंबी हो कर निकली और मैंने कहा … ‘‘कुछ नहीं यार, उनकी तरफ से स्वीकारोक्ति के कोई संकेत नहीं है।’’
मीना अब सोचने की मुद्रा में आ गयी थी। सामने आती दूसरी टीचर्स की दृष्टि हमारे चेहरों को पढ ना ले इसलिये इधर उधर की बातें करते हुए जल्दी जल्दी काॅरिडोर पार किया। स्टाफ रूम में षिक्षण सामग्री रखी और अपनी अपनी साइकिलों से घर रवाना हुई। मन में उठ रहे विचारों के बादल और आंषकाओं की बिजली आसमान में भी चमक रही थी।
हम दोनों बिना बात किये तेजी से साइकिल चला रही थीं। जलते हुए तवे की तरह आकांक्षाओं के प्यासे मन पर बारिष की कुछ बूदों के साथ सकारात्मक सोच की ठंडी बयार मन को बहलाने का निष्फल प्रयास कर रही थी। भीगते तन के साथ मन भी कुछ भीग गया था। श्री सिद्धेष्वर महादेव मंदिर के पहले मीना नव विकसित हो रही नागेन्द्र काॅलाॅनी की तरफ मुडते हुए मुझे ठीक से घर पहुंचने की हिदायत देते हुए बाय बाय कहा और उस मोड पर उससे बिछडते ही मुझे अकेला पा कर तड तड तडा तड तड गिरती बारिष की मोटी मोटी बूंदों ने मुझे घेर लिया और मैं एक बार फिर श्री सिद्धेष्वर महादेव मंदिर में उसी बिल्ववृक्ष के नीचे थी जो दो दिन पहले मेरे और शेखर के अन्जाने में गुथ गये कलावों के मौन संवाद का साक्षी था।
मैं कलावों में उस छलावे को ढूंढ ही रही थी कि मंदिर के पट्ट खुलने के स्वर में मिले हुए शब्दों में मेरा नाम सुनाई दिया ‘‘आओ देवी मंदाकिनी, यहां आ जाओ। इस मायाविनी बरसात में वहां खडे रहना निरापद नहीं है।’’
मंदाकिनी संबोधन पर चैंक कर मैंने देखा कि धीरे धीरे खुल रहे मंदिर के द्वार से सिद्धेष्वर महादेव के उस ओर श्वेत वस्त्र में लिपटे एक योगी की स्फटिक मणि समान चमकती आंखों से निसृत एक तेजपुंज विस्तारित हो कर मुझे अपने आकर्षण से बांधे खींच रहा था। प्रणाम करते हुए माथे पर उभर आये मेरे प्रष्नों के स्वेद बिंदू को अपनी अभयमुद्रा से पौंछते हुए योगी बोले … ‘‘कलावों के बंधन को मन की उलझन न बनाओ देवी मंदाकिनी। तुम्हें अपना मार्ग स्वयं मिल जायेगा।’’
मैं न मालूम क्यों निसंकोच हो गयी और पूछ बैठी … ‘‘अर्थात मेरे और शेखर के प्रेम का परिणाम …?’’
मुझे बीच में ही रोक कर योगी बोले … ‘‘तुम्हें तुम्हारे प्रेम का परिणाम जानना है या तुम्हारा भविष्य।’’
शब्दों का कुछ गुणा भाग मुझे भी आ गया था। मैंने पूछा … ‘‘क्या परिणाम और भविष्य अलग अलग हैं?’’
योगी ने कहा … ‘‘हां देवी मंदाकिनी!! जिस प्रकार विद्यार्थियों को तुम्हारा दिया हुआ अच्छा शैक्षणिक परिणाम उनके अच्छे भविष्य की सुनिष्चितता नहीं है उसी प्रकार तुम्हारे प्रेम का परिणाम भी तुम्हारे भविष्य से अलग है। परिणाम तुम्हारे हाथ में है किंतु भविष्य नहीं।’’
परिणाम और भविष्य की इतनी महीन व्याख्या का इतना विषाल केनवास पहली बार मेरे सामने था। मैं परिणाम और भविष्य के दो राहे पर खडी सोच रही थी और न मालूम कहां से मुझ में शब्द सौष्ठव आ गया और मैने पूछा … ‘‘और मेरे समर्पण के भविष्य की अनिष्चितता से परिणाम की कोई मुक्ति नहीं?’’
योगी तो योगी ही थे, उनके लिये कोई रहस्य जैसे रहस्य ही नहीं था। मेरी जिज्ञासा को शांत करते दो टूक उत्तर दिया … ‘‘मुक्ति की आकांक्षा भी तो मुक्ति का बंधन ही है और यही कारण है कि कोई मर कर भी मुक्त नहीं होता। जहां बंधन है वहां मुक्ति कैसी? सदेह मुक्ति ही मुक्ति है। मुक्ति चाहिये तो बंधन खोलने होंगे।’’
योगी के शब्द भी शेखर के शब्दों की तरह ही स्पष्ट कुछ नहीं कह कर भ्रम के भंवर में डालने वाले थे। मैंने निहित अर्थ की स्पष्ट छवि उकेरने के लिये समझ कर भी न समझने का अभिनय करते हुए पूछ लिया … ‘‘अर्थात्?’’
अब योगी के स्वर और शब्दों का माधुर्य शाष्वत सत्य की कठोरता में बदल गया और एक एक शब्द के साथ उनकी छवि भी मंदिर की घंटियों की गूंज में घुलने लगा … ‘‘अर्थात तुम्हारे समर्पण में भविष्य का स्वार्थ होने से तुम्हारा वर्तमान भी इसके परिणाम से मुक्त नहीं हो सकता। कलावे के छलावे में बंदी मंदाकिनी और शेखर के प्रेम का परिणाम कुंठित हो कर रह जायेगा किंतु दोनों का भविष्य नहीं बदल पायेगा। शेखर के जीवन का लक्ष्य कल्याण के षिखर को प्राप्त करना है, उसके मार्ग में बंधन का शूल मत बनो। उसे मुक्त कर दो, उसे मुक्त कर दो।’’
मंदिर के बडे घंटनाद की मंद्र होती ध्वनि के साथ योगी की छवि विलुप्त होने लगी, वो तेजपुंज एक नन्हें से जलते हुए दीपक में सिमट कर रह गया और पुजारीजी के स्वर मेरे कानों में पडे … ‘‘अरे अरूणिमा बेटी, आज इतनी जल्दी!! और अकेले!! राघव, अंजली और वो तुम्हारी सहेली वे शेखर नहीं आये?’’
मेरे हृदय में उठ रहे प्रष्नों का झंझावत को मेरी आंखों में आष्चर्य की सुनामी में बदलते देख पुजारीजी ने कहा … ‘‘क्या हुआ अरूणिमा? तुम ठीक तो हो? लो थोडा जल पी लो।’’
पानी का लोटा हाथ में लेते हुए मैं केवल इतना बोल पायी … ”मैं ,,, वो बारिश,,, वो योगी!!!
पुजारीजी ने कहा … ”बारिश!!! कहां बारिश? हां थोडी बूंदाबांदी हुई है लेकिन योगी? कौन योगी? यहां तो कोई योगी नहीं है।”
पानी पीते पीते मेरे कानों में योगी के ‘मायावी बारिश’ शब्द गूंज रहे थे। मंदिर में दर्शनार्थी आने लगे थे और मैं ज़्यादा तमाशा नहीं बनना चाहती थी। घर पहुंची तो मां सब्जियां लेने मंडी गयी हुई थी। अंजली भाभी को कल रात नींद नहीं आने से थकान का बहाना बनाया और अपने मन में अनेक प्रश्न और आशंकाओं का बोझ लिये मैंने बिस्तर की राह पकड ली।
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मंदाकिनी पार्ट 7 / Mandakini part 7
तो आप ने अब तक पढा … मां को उठते ही दो मिनट ईष ध्यान कर पानी पीने की आदत थी। उनके कमरे से निकलने