मत कहो घबरा गया मत समझो रण छोड दिया।।

ये आज की रचना नहीं है और ना ही कृषी कानून वापसी से कोई संबंध है। लेकिन निर्णय के संशोधन, संवर्धन, परिवर्द्धन, परिवर्तन या परावर्तन के संबंध में बहुत पहले मेरे ही किसी अनुयायी को कहा था। अनावश्यक भूमिका को छोड़ते हुए आप को आमंत्रित करता हॅूं आईये चर्चा करें। हां इतना कहूंगा कि शब्दों की मर्यादा आप के आचरण की मर्यादा के साथ आप के परिवेश और पृष्ठभूमि की परिचायक होगी।

एक कदम पीछे हटाया और प्रवाह को मोड दिया।
मत कहो घबरा गया मत समझो रण छोड दिया।।

मथुरा से गमन हुआ तो ही द्वारिका का सृजन हुआ,
इच्छाओं का शमन हुआ तब मुनियों का मनन हुआ,
राम भी शिव के शरण हुआ तो रावण का दमन हुआ,
शिवधनुष खण्डन के अहं को पिनाकी ने तोड़ दिया।।
मत कहो घबरा गया मत समझो रण छोड दिया।।

शिखण्डियों से लडना कब, कहां वीरता कहलाई है,
गर होते हों सब सुखी तो एक के मरने में भलाई है,
शीश के दानी बर्बरीक से पूछो किसने विजय पाई है,
ये धैर्य ही था कि, उदण्डी शिशुपाल को छोड दिया,
मत कहो घबरा गया मत समझो रण छोड दिया।।

अपमानित होती रही द्रौपदी पर सब धृतराष्ट्र बने रहे,
क्या विवशता रही होगी कि सब मूक व गार्त बने रहे,
आज सिखाते हैं धीर-वीर होना तब तो काठ बने रहे,
एक ही धागे के प्रतिदान ने कौरवों का दर्प तोड दिया,
मत कहो घबरा गया मत समझो रण छोड दिया।।

मर्यादाएं लज्जित हुई और रण महारथ बंटा रहा
बिना शस्त्र बिना युक्ती के क्षत-विक्षत कटा रहा,
रथ का टूटा पहिया लेकर ही जो रण में डटा रहा,
धीरता वीरता का सर्वकालिक कीर्तीमान छोड दिया,
मत कहो घबरा गया मत समझो रण छोड दिया।।

असंभव क्या है आये और कोई मुझे बताये तो सही।
मुश्किल क्या है एक बार मेरे सामने आये तो सही।।
मुसीबत देखूं कभी मेरी आंखों से टकराये तो सही।।
हमने हर दुश्वारी का दर्प, दर्पण सा तोड दिया।।
मत कहो घबरा गया मत समझो रण छोड दिया।।

कोई खा रहा है भरपेट कोई बस आंसू पी रहा है।
कहीं मखमली लिबास कोई फटी फतूही सी रहा है।
यहां हर एक बस, अपना ही संघर्ष तो जी रहा है।
आज लडाई जीती है कल की फ़िक्र को छोड दिया
मत कहो घबरा गया मत समझो रण छोड दिया।।

नित्य समर हो रहा कहीं रोटी का कहीं इज्जत का।
कहीं हठ, कहीं शठ, कहीं जिल्लत कहीं शुहरत का।
कहीं सत्ता कहीं ऐंठ कहीं प्रेम और कहीं नफरत का।
मूल्यों की अछूती सीमा का आयाम भी देखो तोड दिया।।
मत कहो घबरा गया मत समझो रण को छोड दिया।।

काजल की कोठर में भी जो धवल ध्वज लहरा सके।
लाक्षागृह की अग्नि को जो पद दमन कर हरा सके।
तक्षक, वासुकी शेष नागों के विष को जो जरा सके।
पाखण्डी दम्भियों मिथ्याचारियों का भाण्डा फोड दिया।
मत कहो घबरा गया मत समझो रण को छोड दिया।।
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हुकम सिंह ज़मीर

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