ये एपिसोड़ नहीं पढ़ा तो क्या पढ़ा?
अब तक आपने पढा …
शराफ़त अली खां और शादाब क़ुरैषी के लटके हुए चेहरों से ईद की चमक उतर चुकी थी और पकवानों की सुगंध गुलाबी ठण्ड़ी हवाओं में घुल कर दूर जा चुकी थी। नर्सरी से नीचे घाटी में घरों की खिडकियों से छन कर दिख रही स्थिर पीली रोषनी पेडों की पत्तियों से छनकर उड़ते हुए जुगनुओं से प्रतिस्पर्धा कर रही थी जो चौदहवीं के चांद की दूधिया चांदनी में दूध में केसर की तैरती हुई पत्तियों का आभास दे रहे थे।
अब आगे …
शेखर की चुप्पी से छाई निस्तब्धता को तोड़ते हुए शबाना बेग़म ने आंखें मटकाते हुए अपनी रेषमी आवाज़ में कहा …
‘‘छोड़िये ना भाईजान, बात कहां से कहां जा पहंुची। हमें तो रष्मि भाभी ने आपकी शोहरत एक शायर की बतायी थी। हम तो आप की शायरी सुनने आये थे। वैसे हमारी रूख़साना आपा भी इंषा अल्लाह बहुत अच्छा कह लेती हैं। तो क्यों ना बेतबाज़ी ( पद्य परिचर्चा, कविता के माध्यम से दोनों पक्षों का अपने विचार व्यक्त करना) की बज़्म आराई हो जाए? आखिर मौक़ा भी है, दस्तूर भी है। कुछ ईद के मसले हों कुछ दीदार नुमाई (रूप दर्षन, श्रंगार रस) हो जाए।’’
शेखर ने रूखसाना बेग़म की गोद में ऊंघ रहे 8-9 साल के बच्चे और उनके पास में बैठे तीन बच्चों की तरफ अर्थपूर्ण दृष्टी से देखते हुए हल्के से मुस्कुराते हुए कहा … ‘‘अरे वाह, आप को शायरी का वक़्त भी मिल जाता है?’’
शेखर के प्रष्न में छुपे हुए व्यंग को समझ कर खिलखिला कर हंस पड़े और राघव भैय्या तो जैसे इस आमंत्रण की प्रतीक्षा ही कर रहे थे। तालियां बजाते हुए बोले शबाना बेग़म के प्रस्ताव का समर्थन करते हुए शेखर से बोले … ‘‘वाह वाह वाह वाह वाह, क्या बात कही है। भाई कविराज शेखर, शुरूआत शबाना भाभीजान के प्रस्ताव से हो जाए। मैं तुम्हारी ही चार पंक्तियों से इस महफ़िल की शुरूआत करता हूं।’’
ठहरे हुए दरिया को रवानी दे दे।।
मुर्दों को भी जो जिं़दगानी दे दे।।
साज़ ए सुखन पे छेड सोज़ ए इष्क,
ढलती हुई रात को जवानी दे दे।।
राघव भैय्या की इस काव्यात्मक प्रस्तुति और प्रस्ताव पर सभी ने तालियां बजाते हुए वाह-वाह कह कर शेखर की तरफ देखा। शेखर के अब तक के गम्भीर व गरिमामय व्यक्तित्व के विपरीत उनकी आंखों में चंचलता देख कर मैं विष्वास नहीं कर पा रही थी। मैं कुछ समझने का प्रयास कर ही रही थी कि शेखर की आवाज़ वातावरण में घुलने लगी।
साज़ ए दिल से तान निकल जाएगी।।
होठों में दबी, मुस्कान निकल जाएगी।।
आप भाई कह के जान तो कह रहे हो,
देख लेना हमारी जान निकल जाएगी।।
सामान्य बोलचाल में बोले जाने वाले एक साधारण शब्द को यूं व्यंग में ढालने वाली शेखर की अंतिम पंक्ति निष्चय ही सब को चौंकाने वाली थी। वाह-वाह के शोर में शबाना की पुलकित हंसी के साथ अचकचाहट और शराफ़त अली के चेहरे के उडे़ हुए रंग को तो कोई नहीं देख पाया लेकिन शेखर के शाब्दिक उक्ति-लाघव से रूखसाना बेग़म की बेचैनी उसके शब्दों और खनकती आवाज ़में झलक पडी।
लौ ए रख़्षाना में जल न जाना कह के जान मुझे।।
मैं शमअ़ हूं अय् नादान परवाने, देख पहचान मुझे।।
शादाब कु़रैषी ने वाह-वाह, मुक़र्रर-मुक़र्रर कहते हुए गर्व से रूखसाना की तरफ देखा और पहले जवाब से प्रतिस्पर्धा की रोचकता का संकेत मिला तो हम सभी की तालियों के बीच शेखर ने रूखसाना बेग़म के तीखे तेवर को और भड़काते हुए कहा …
तहज़ीब और अदब से जान कहने पे है ये गुस्सा??
आप कह लीजिये बे अदब सौ बार मेरी जान मुझे।।
एक बार फिर शेखर के शब्द की उक्ति-लाघव को प्रमाणित करते हुए हमारी तालियों से ऐसा लगा जैसे आग में घी डाला हो और रूख़साना बेगम के चेहरे पर तमतमाहट उभर आई। एक-एक शब्द चबाते हुए बोली …
इससे पहले, कि ज़िंदगी अजाब हो जाए।।
हड्डियां सुरमा बोटी बोटी कबाब हो जाए।।
हम हत्प्रभ थे कि ये तकरार कहां जा रही है लेकिन रोचकता से रोमांचक होते जा रहे अंत्याक्षरी के इस खेल का परिणाम सब की कल्पनाओं में अलग-अलग हो कर भी उत्सुकता को बढ़ा रहा था। रूख़साना बेग़म का बढ़ता स्नायुविक उद्वेग किसी लोहार की भट्टी से धौंकनी की छूटती सांसों के साथ उड़ने वाली चिन्गारियों व लपटों पर ठण्ड़ा तवा रखते हुए शेखर ने
पलट कर बहुत शांत स्वर में उत्तर दिया।
शामें उदास रातें जोगन दिन खराब हो जाए।।
ये हसीन मुलाक़ात महज़ एक ख़्वाब हो जाए।।
ख़ुदाया वो दिन न आये लोग तेरे हाल पे हंसे,
इससे पहले आ शीरीं लुब्ब ओ लुबाब हो जाए।।
पहले ओवर में ही चौके छक्के लगने से रोमांचक होने वाले खेल में दर्षकों के बढ़ने वाले उत्साह की तरह सभी उपस्थित अतीथि अपने-अपने स्थान पर जम कर बैठे दोनों प्रतिस्पर्धियों की अगली पारियों की उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहे थे। शेखर के स्पष्ट आमंत्रण की चोट से तिलमिलाई रूख़साना बेग़म ने शेखर को घायल नागिन की तरह फु़फकार कर ललकारते हुए शराफ़त अली खां और शादाब क़ुरैषी के नाम प्रयोग करते हुए शेखर को संकेत देना चाहा।
अपने लफ़्फ़ाज़ी घोडों को लगाम लगा नादां,
शराफ़त इसमें है कि ज़ुबां शादाब हो जाए।।
खेल के बदलते रंग को देख व समझ कर रूखसाना की तरह सभी दर्षक थोड़ा गम्भीर हो गये लेकिन शेखर को तो जैसे न मालूम क्या हो गया था। रूखसाना बेग़म कुछ और कहती उससे पहले ही उन्होंने किसी नटखट फिल्मी छिछोरे हीरो की तरह आंखों की भाव भंगिमा बना कर कहा …
आप का गुस्सा आप से कहीं ज़्यादा हसीन है,
आप की बेरूखी को भी अर्ज आदाब हो जाए।।
रूख़साना बेग़म के सब्र का बांध जैसे भर गया था। अब उनके शब्दों में सीधी चुनौती और चेतावनी थी। जैसे वो कहना चाह रही हो कि शराफ़त अली खां तो फिर भी कुछ सहिष्णु हैं लेकिन शादाब क़ुरैषी जाति और पेषे से कसाई हैं तो शेखर परिणाम सोच लें। धमकी और समझाने के स्वर में कहा …
ना तो पादाष ए अमल को जाना, न नसाब को पहचाना है।।
रब्बुल आलमीन की शान में गुस्ताखी अजाब का ख़ज़ाना है।।
ये हिक्मत अ़मली में पोषीदा, मज़हब के बागी नेज़े ओ नष्तर,
आप ने शराफ़त ही देखी है अभी, शादाब को नहीं जाना है।।
आखिरी ओवर में रोमांच से अधिक आक्रामक हो चुकी प्रतिस्पर्धा हम दर्षकों के मन-मस्तिष्क में आषंकाओं के बादल गहराने लगे लेकिन हरफ़न मौला शेखर की व्यंगबाज़ी भी अपने चरम पर थी। रूख़साना बेग़म की चुनौती और चेतावनी का उत्तर देते हुए उन्होंने भी संदेष दिया।
कर्द ओ नसीब ओ पादाष ए अमल का इतना ही फ़साना है।।
शराफ़त को नसीब शबाना, शादाब के पहलू में रूख़साना है।।
अम्न ओ अमान की अलम बर्दारी में, मरदूद ख़ुदा हुए जाते हैं,
परवर दिगार ए आलम के ख़ौफ़ का काग़जी पर्दा हटाना है।।
(शब्दार्थ शबाना … रात का बचा हुआ, बासी खाना। शादाब … हरा भरा, सरसब्ज। रूख़साना … सही शब्द रख़्षाना है जिसका अर्थ है आलोक, चमक, दीप्ति। अम्न ओ अमान … शांती और सुरक्षा। अलम बर्दारी … घ्वज उठा कर चलने वाला। मरदूद … मरे हुए लोग, जिनकी अंतरात्मा मृत हो गयी हो।)
शेखर और रूख़साना की बैतबाज़ी को बहसबाज़ी में परिवर्तित होते देख शबाना ने कुषल अम्पायर की तरह बीचबचाव करते हुए समय की कमी की ओर ध्यान दिला कर काव्यधारा में चौदहवीं के चांद से बरस रही मधुचांदनी का प्रेमरस घोलने का संकेत करते हुए कहा …
वो कह रहे हैं उधर चलिये, आप कहते हैं इधर चलिये।।
पस ओ पेष में हैं ज़ेहन उधर चलिये कि इधर चलिये।।
ये रात तो खिंच के लम्बी न हो सकेगी साहिब ए सुखन,
जिधर जा रहा है माह ए अकरम चलिये उधर चलिये।।
(शब्दार्थः- पस ओ पेष … अनिर्णय की स्थिती। साहिब ए सुखन … कवियों के सम्मान में कहा जाने वाला शब्द। माह ए अकरम … चौदहवीं का चांद)
शबाना बेग़म की समझदारी व चातुर्यपूर्ण मध्यस्थता का तालियां बजा कर समर्थन करते हुए सभी ने सहमति जताई तो मंझे हुए खिलाड़ी की तरह शेखर ने प्रत्युत्तर में बड़ी सफाई से प्रत्यारोप लगाते हुए कहा …
कुछ हम उधर चलेंगे कुछ उनको कहो कि इधर चलिये।।
इधर चलो या धधर चलो संभल कर चलो जिधर चलिये।।
कष्ती ए बज़्म की तक़दीर अब तेरे हाथों में है ऐ नाख़ुदा,
आप की मर्ज़ी है अब जहां ले चलिये अब जिधर चलिये।।
रूखसाना बेग़म भी ठण्डे वातावरण में बढ़ती जा रही भावनात्मक तपिष केा समझ चुकी थी। इसलिये अपना सम्मान बचाते हुए विषयांतर कर बोली …
ये कैसा दौर है योम ए विलादत शब ए बरात नहीं होती।।
इबादत, सजदे, नमाज़ और दुअ़ाओं में इफ़रात नहीं होती।।
तेरे नूर की रोषनी में नहाया सारा आलम दिलों में अंधेरा है
ये मुक़द्दस दिन मुहब्बत ओ ख़ुलूस की बरसात नहीं होती।।
या ख़ुदा तेरी रहमत से उन बदबख़्तों को अक़्ल अता फ़रमा,
ईद के मुबारक दिन भी दीदार ए यार की बात नहीं होती।।
शेखर की हाजिर जवाबी भी कमाल की थी। रूख़साना बेग़म शब्दों से ही जवाब देते हुए वे धार्मिक मान्यताओं व परंपराओं पर प्रहार करने से नहीं चूके।
भूखे, प्यासे, लाचार, फ़कीरों की कोई ज़ात नहीं होती।।
सिर्फ़ अपनों को बांटी हुई रेवड़ियां ज़कात नहीं होती।।
तल्लफ़ुज़ के फ़र्क़ से रामादान ही माहे रमज़ान है बन्दे,
मुझे वो एक घड़ी बता जो ख़ुदा की सौगात नहीं होती।।
सजदा करते करते वो बद्र से जब हो जाता है हिलाल,
वो रोज़ ए ईद होता है, शब ए बारा वफ़ात नहीं होती।।
बैतबाज़ी का आनंद ले रहे सभी अतीथि दोनों कवियों के सवाल-जवाब का आनंद लेते हुए उनकी प्रस्तुति व तुरंत रचनाकर्म की मुक्तकंठ से प्रषंसा कर रहे थे। रामगांव के मुखिया हरेन्द्रसिंह नेगी ने तो उठ कर शेखर को गले लग कर
बधाई
दी, लखवाड़ के मुखिया पानसिंह बिष्ट ने अपनी गढ़वाली टोपी तथा और रावतजी की टापरी वाले जोगेन्द्रसिंह रावत ने अपना दुषाला शेखर को ओढ़ा कर सम्मान किया।
संभवतः रूखसाना बेग़म भी समझ चुकी थी कि उसके प्रतिद्वंद्वी एक असाधारण प्रज्ञा और निडर व स्पष्टवादी व्यक्तित्व है जिसे बातों में जीत पाना संभव नहीं है। नहीं कह सकती कि ये उनका रवैया बदल गया था या ये उनका कोई रणनीतिक दांवपेच था या काव्य की ओट में शेखर को अपने सौंदर्यपाष में फांसने का आमंत्रण!! रूखसाना बेग़म जैसे समझौते पर उतर आई थी …
कुछ तो अक़्ल की बात कर इल्म के अ़लामात तो दे।।
मुहब्बत ख़ुलूस ़की बात कर इष्क़ के इषारात तो दे।।
ये का़िफराना कफ़्फ़ारत उसकी उम्मत में बदल जाएगी,
अ़दावत की अदा छोड कभी मौक़ा ए मुलाक़ात तो दे।।
दूसरे लोग वाह वाह कर रहे थे लेकिन रूखसाना बेग़म ही इन पंक्तियों ने मेरे अंदर एक हलचल मचा दी। मैं आष्वस्त थी कि शेखर उसे भी व्यंग में कोई करारा प्रतिकूल उत्तर देंगे लेकिन रूख़साना बेग़म के इस खुले आमंत्रण ने जैसे उनमें उछृंखलता के बीज को अंकुरित कर दिया था। गढ़वाली टोपी को थोड़ा तिरछा करते हुए आंखों की भवों को ऊंचा-नीचा कर बायीं आंख को हल्का सा दबा और दाहिनी आंख को विस्तारित करते हुए कहा …
मेरे हाथों में, जरा अपना हाथ तो दे।।
आग से खेलूंगा, तू मेरा साथ तो दे।।
बंदगी ए सुखन और मैकदे में ऐ अदीब,
बज्मे सुखन मय में, मुझे दाद तो दे।।
मेरे अशअ़ार पे तुझे ऐतबार नहीं है वले,
झूठे ही सही इंशाद ओ इर्शाद तो दे।।
गर्चे हरगिज़ दोस्ती का भरम मत रख,
फर्ज़े अदावत में दुअ़ा ए बर्बाद तो दे।।
गले लग कुर्बानी ए मुहब्बत पे ईद मना,
बोसा ए रूखसार की, जकात तो दे।।
हासिल है मुझे तुझसे गुफ्तगू का शरफ
हो चुकी बातें एक वस्ल की रात तो दे।।
तख़ल्लुस रख़्षां है वले क्यों रष्क मुझसे
गुड़ नहीं है, तो गुड़ जैसी बात तो दे।।
मेरी जानकारी में शेखर ने कोई नषा नहीं किया था लेकिन उनके जवाब ने मेरे अंदर एक तूफ़ान खड़ा कर दिया। थोड़ी देर पहले जो स्नायुविक उद्वेग रूख़साना बेग़म के शब्द और सांसों में दिख रहा था वो अब मेरे अंदर प्रवाहित होने लगा था। मेरी व्याकुलता अन्यमनस्कता में परिवर्तित होने लगी थी जिसे भांप कर अंजली भाभी ने मेरा हाथ दबा कर मुझे शांत रहने का संकेत किया।
उधर रूखसाना बेग़म ने पूर्णतः समर्पण करते हुए कहा …
मंज़र मेरी ज़िंदगी का, सब से अजीब हुआ।।
अज़ीज़ जान से ज़्यादा हम को रक़ीब हुआ।।
ज़हेनसीब, ज़हेक़िस्मत इस मेहरबानी पे सदके,
आप की सुहबत सामान ए हयात ग़रीब हुआ।।
लिये फिरते था क़फ़स आब ओ दाना ओ दाम,
दश्त में सैयाद ख़ुद गिरिफ़़्तारेअन्दलीब हुआ।।
कैसे भूलेगा दिल, इस चांदनी रात का मंज़र,
गुफ़्तगू ए नबर्द ए इष्क़ फ़ख्र ए नसीब हुआ।।
सब लोग रूखसाना बेग़म के बदले हुए तेवर की प्रषंसा में वाह-वाह कर रहे थे और मेरे अंदर उठ रही आंधी में मेेरे विष्वास की काग़ज़ी नाव डगमगाने लगी थी। मैंने बहुत निराषा से अंजली भाभी की तरफ देखा तो उन्होंने आंखों से संकेत कर धैर्य रखने को कहा। इसी के साथ उत्सुकता से शेखर के उत्तर की प्रतीक्षा कर रहे अतीथियों ने प्रतिस्पर्धियों में आ चुके मित्रभाव की सराहना की और शेखर ने भी उन्हें निराष न करते हुए कहा …
यक़ीनन इस बार तो मसीहा बन ही जाउंगा,
रहनुमाई रूख़ ए रख़्षां में कशीदेसलीब हुआ।।
एक मुद्दत से सोये थे मेरे हर्फ़ और अल्फ़ाज़,
तेरे शीरींलब मेरे साज़ेसुखन का मज़ीब हुआ।।
मेरी मासूम हसरतें यकसां झुलस के रह गयी,
हम को एहसास ए रख़्षां इतना क़रीब हुआ।।
शेखर के हर शे‘र पर हो रही वाह-वाह से अब तक रूख़साना बेग़म पस्त हो चुकी थी और मैं समझ नहीं पा रही थी कि शेखर और रूख़साना के मध्य ये शे‘र ओ शायरी ही थी या दोनों एक दूसरे को संदेष दे और ले रहे थे। मैं अपनी ही काल्पनिक आषंकाओं में घिरी हुई ना मालूम क्या-क्या सोच रही थी तब राघव भैय्या ने शेखर का कांधा थपथपाते हुए कहा …
इसे कहते हैं मेरे यार नहले पे दहला।।
तेरी शायरी से दिल हो गया है गहला।।
तेरी सुहबत में शायरी तो सीख न पाए,
तुकबंदी से अपना दिल रहे हैं बहला।।
शेखर और रूखसाना बेग़म की प्रस्तुती से कहीं ज़्यादा वाह-वाह और तालियां राघव भैय्या को मिली तो मुझे भी अपनी बात कहने के लिये एक आधार मिल गया। राघव भैय्या को मिल रही वाह-वाह और तालियों की गड़गड़ाहट में मैंने भी अपने विरोध, प्रार्थना, उलाहना और संदेष को चार पंक्तियों में सहेज कर कह ही दिया।
अपनी सियाहरूह को चांदनी में नहला।।
किसी के सहमे दिल जिगर को सहला।।
किसी की ज़ुल्फ़ ओ रूख़सार में उलझ के
कहीं भूल मत जाना प्यार अपना पहला।।
राघव भैय्या, अंजली भाभी, माधव भाई साहब और रष्मि भाभी ने मनोवेग जनित मेरे इस नितांत अप्रत्याषित उद्वेगपूर्ण प्रवाह को आष्चर्य से देखा तो मैं थोड़ा संकोच में पड़ गयी लेकिन दूसरे लोगों ने मेरे शब्दों के शाब्दिक अर्थ को बहुत सामान्य लेते हुए राघव भैय्या की प्रषंसा की तुलना में दुगुने उत्साह से मेरी प्रषंसा की। शेखर कुछ क्षण के लिये निषब्द हुए तो शबाना बेग़म और रूखसाना ने शेखर की तरफ प्रष्नभरी कुटिल दृष्टी से देखा जैसे पूछना चाह रही हो कि अब क्या जवाब दोगे? मेरे शब्दों पर शेखर की चुप्पी को अंजली भाभी और शेखर के अतिरिक्त कोई समझ नहीं पाया। शेखर को उत्तर नहीं देते देख कर रूख़साना बेग़म ने जैसे मुझे सांत्वना और शेखर को उलाहना देते हुए कहा …
तेरी सूरत भी ईद का चांद है दीद नहीं होती।।
कैसे समझाऊं गले मिले बिना, ईद नहीं होती।।
बोसा ए लब ना पयामे नज़र ना वादा ए वस्ल,
दिल ले के कहते हैं इसकी रसीद नहीं होती।।
सैर कर ग़ाफ़िल ज़माने की बातों में रखा क्या है,
ज़िंदगी हो या जवानी यहां तज़्दीद नहीं होती।।
शेखर चुप रहे तो अंजली भाभी ने भी जैसे इस अवसर को हाथ से न जाने देते हुए मुझ से अपना वचन पूरा करने की दिषा में एक कदम बढ़ाया और शेखर से अपने मन की ग्रंथी को खोलने के लिये कहने की आड़ में जैसे वो पूछ रही थी …
अपना गरेबां टटोलो, कुछ तो बोलो।।
मन के दाग़ धो लो, कुछ तो बोलो।।
अब या तो किसी को अपना बना लो,
या किसी के हो लो, कुछ तो बोलो।।
आज चीख कर पूछ रही है ख़ामोषियां,
ऐ सुलगते हुए शोलों, कुछ तो बोलो।।
बीते हुए हसीं लम्हे कह रहे हैं रूबरू,
रूला दो, या रो लो, कुछ तो बोलो।।
हंसती खेलती मासूम किसी ज़िंदगी में,
यूं ज़हर तो न घोलो, कुछ तो बोलो।।
कब तलक चुप रहोगे आखिर अब तो,
दिल का राज़ खोलो, कुछ तो बोलो।।
मैं अंजली भाभी के साहस और चतुराई को मन नही मन सराह रही थी कि कितनी सफाई से उन्होंने अपना वचन यूं सब के सामने निभाने का प्रयास किया जिसे मेरे और उनके अतिरिक्त कोई समझ नहीं पाया। मैंने अंजली भाभी की तरफ कृतज्ञतापूर्वक देख कर संकेत से ही धन्यवाद दिया लेकिन शेखर का मौन मुझे अंदर ही अंदर कचोट रहा था। सब की निगाहें शेखर की तरफ कौतुहल से देख रही थी और शेखर के मुंह पर जैसे ताले लग गये थे। सब की दृष्टी का केन्द्र बन चुके शेखर ने रूखसाना बेग़म की तर्ज में जवाब देते हुए जैसे मुझ से कह रहे थे …
राह ए वफ़ा में अगर ये मुहब्बत शहीद हो जाएगी।।
ज़र्रा ज़र्रा संगे दरे जानां कमर ख़मीद हो जाएगी।।
फ़रिष्ता ख़ू शफ़क गूं होंगें मुहब्बत मुकम्मल होगी,
मुहब्बत मुहब्बत न रहेगी नामे मजीद हो जाएगी।।
मुहब्बत का मुहब्बत से सिला बन जाए सिलसिला,
तुम अगर मिल जाओ ज़िंदगी तज्दीद हो जाएगी।।
ईद के बिना ईद कैसे होती है आ ये राज बता दूं,
तुम जब जब गले लगोगे तब तब ईद हो जाएगी।।
वाह-वाह और तालियां समाप्त हुई तो बड़े मनोयोग से सुन रहे माधव भाई साहब तथा सभी अतीथियों में से अपनी युवा पुत्री चांदनी और सात-आठ वर्षीय पुत्री निषा के साथ आये रावतजी की टापरी के पास गांव में वाले जोगेन्द्रसिंह रावत तथा उनकी गर्भवती पत्नि की ओर गया जिन्हें उनकी छोटी बेटी निषा इठलाती हुई तुतलाई आवाज़ में सेंवईयां खिलाने का हठ कर रही थी। माधव भाई साहब ने उनकी पत्नि की गर्भावस्था को इंगित करते हुए कहा … ‘‘जोगेन्द्रसिंह जी, शेखर साहब आप की ईद तो गले लग कर हो जाएगी। आपकी ईद कब होगी?’’
जोगेन्द्रसिंह रावतजी ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया … ‘‘देखो साहब ईद का अर्थ ख़ुषी का दिन होता है और हम पहाड़ी लोगों की छोटी-छोटी इच्छाएं ही प्रसन्नता का आधार है। जीवन के उतार-चढ़ाव सी इन ऊंची नीची पहाड़ियों में छोटी सी समतल भूमि पर कोई झूमता हुआ बादल थोड़ी सी खुषी बरसा दे तो हमारे लिये त्यौहार हो जाता है। फिर आज का ये दिन तो रूखसानाजी, शबानाजी और शेखरजी के होने से बहुत विषेष हो गया। शेखरजी की किसी से गले लगने की छोटी सी इच्छा की तरह हमारी भी छोटी-छोटी इच्छाएं हैं जो समय आने पर पूरी होती है और हमारी ईद अनवरत हो जाती है। रात तो बहुत हो गयी लेकिन आप का आदेष हो अर्ज करूं?’’
सभी ने तालियों के साथ सुऔंण-सुऔंण कह कर ध्वनिमत से अपनी बात कहने के लिये जोगेन्द्रसिंह रावतजी को प्रेरित किया तो उन का एक-एक शब्द मेरी कल्पनाओं में दृष्य बन कर आंखों में साकार होने लगा। रावतजी ने सुनाया …
बजती हो शहनाई
सितारों से सजी हो झालरें
पीठी मल नहलाये
भाभीयां, बहन मेंहन्दी लगाएं
तो ईद होती है।।
ताज तुर्रे ताकी से
बुलन्द पगडियां हो पेंचदार
सदके उतार बलईयां
लेकर मां देती हो दुआ़एं
तो ईद होती है।।
ताशे तुरही नगाडे हों
चान्द सितारों की बारात में
यार नाचे गाएं और
दूल्हा बना घोडी पे बिठाएं
तो ईद होती है।।
शबे वस्ल में बा हया
सुर्ख जोडे में हो माहे हुस्न
उठते नकाब के साथ
लर्जिश से होंठ थरथराए
तो ईद होती है।।
उदास बोझिल दिन
दुनियांदारी से थकी शाम को
जामे शीरीं लब से
छूकर वो बाद ए सबा बनाए
तो ईद होती है।।
घर में होने लगे हांे चर्चे
भाभीयां करने लगे ठिठोलीयां
हम नफ़स बाहमल होने की
खबर कहते हुए शरमाए
तो ईद होती है।।
वक़्ते सहर फ़जर की
नमाज़ में सजदे में हो सर
फिर बेटी की किलकारी
गूंजे और दादा थाली बजाए
तो ईद होती है
मौक़ा कोई भी हो वले
दस्तूर तो बेशक़ एक ही है
बेटियां अपने नन्हें नन्हें
हाथों से सिंवईयां खिलाएं
तो ईद होती है।
रावतजी अंतिम पंक्तियों ने सब को भाव विभोर कर दिया जब रावतजी की युवा पुत्री चांदनी ने रावतजी के गले लग कर कहा …
‘‘बाबूजी मितेर अपरा ल्होड़ी हुन पर भारे अभिमान छ। मी त्वै अगणाण् छु।’’
मध्य आकाष में चौदहवीं का चांद अपनी किरणों की बग्घी में सितारे सजाए ठण्ड़ी-ठण्ड़ी ओस का रस नर्सरी की चांदनी, चमेली, चम्पा, जूही, रातरानी और हारसिंगार के फूलों में भर रहा था। मंद मंद बह रही हवाओं में घुली ख़ुष्बू से रष्मि भाभी की गोद में आलोक और शबाना व रूखसाना की गोद में उनके बच्चे भी ऊंघने लगे थे। तब लखवाड़ गांव के मुखिया पानसिंहजी बिष्ट और रामगांव के मुखिया हरेन्द्रसिंहजी नेगी ने सभी उपस्थित अतीथियों को दूसरे दिन शरद पूर्णिमा उत्सव के लिये जोगेन्द्रसिंहजी रावत की तैयार की जाने वाली विषेष खीर की सूचना देते हुए आमंत्रित गांव लखवाड़ में आमंत्रित किया। राघव भैया और शेखर ने गुड नाइट, शराफ़त अली और शादाब कु़रैषी ने शब्बा ख़ैर, शबाना बेग़म और रूखसाना बेग़म ने ख़ुदा हाफ़िज कहा तो बाकी लोगों ने जसीलो रूमुक (षुभ रात्रि) कह कर विदा ली और ईद का त्यौहार पूरा हुआ।
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नर्सरी से कैम्पटी फाल्स मार्ग के उस पार रावतजी की टापरी के आगे लखवाड़ गांव में व्हिस्परिंग टॉरेंट्स कैम्पिंग रिसॉर्ट तक छोड़ आने के लिये हम चारों लखवाड़ के मुखिया पानसिंह विष्ट की खुली जीप में बैठे थे। हम से आगे रावतजी की गाड़ी थी और रामगांव के मुखिया हरेन्द्रसिंह नेगीजी का परिवार था। कैम्पटी फॉल मार्ग पार करने के बाद रावतजी की टापरी पर रावतजी के परिवार ने रूक कर एक बार फिर से औपचारिकता में जसीलो रूमुक (षुभ रात्रि) कहा तो शेखर के सिवांसौली (गुड बाय) कहने पर चांदनी ने विषेषतः शेखर की तरफ हाथ हिलाते हुए कहा … ‘‘सिंवासौंली ढकुळी, जसीलो घूमघाम (गुड़ बाय, तुम्हारी यात्रा सुखद हो)।’’
शेखर ने भी उत्तर में ‘‘तिम्रो आभार, तिम्यै अंग्वाळ पौंडल्या चितौयो’’ (तुम्हारा धन्यवाद, तुम से मिल कर ख़ुषी हुई) कहा तो हम सब चौंके।
तब गाड़ी चला रहे लखवाड़ गांव के मुखिया पानसिंहजी बिष्ट ने पूछा … ‘‘के तिमि गढ़वळी ट्वि सक् छौ?’’
शेखर ने उत्तर दिया .. ‘‘होस् मठु मठु!! (हां थोडा- थोड़ा)’’
राघव भैय्या ने बताया कि शेखर गढ़वाली, कुमांउनी, जौनसारी भाषा जानते है तो गाड़ी चलाते हुए पानसिंहजी ने पूछा … ‘‘तिमि कख बटीक छौ? (तुम कहां के रहने वाले हो?)
शेखर ने उत्तर दिया … ‘‘मी बटीक जयपुर राजस्थान छु।’’ (मैं जयपुर राजस्थान का रहने वाला हूं।)
मुझे शेखर व पानसिंहजी के मध्य हो रही वार्ता में रूचि से अधिक शेखर के भाषाई ज्ञान पर आष्चर्य हो रहा था। मैं समझने का प्रयास कर ही रही थी कि पानसिंहजी ने पता नहीं क्यों पूछा … ‘‘तिमि कति विरबैको छौ?।’’ (तुम कितने साल के हो।)
शेखर ने उत्तर देते हुए कहा … ‘‘मी अट्ठाईस विरबैको छु। कि तिमि गड़वळि बकाई लुकारू भाषा फणि ट्वि छौ?’’ (मैं अट्ठाईसा साल का हूं। क्या आप गढ़वाली के अतिरिक्त अन्य भाषा में बात कर सकते हैं?)
पानसिंहजी ने हंसते हुए कहा … ‘‘व्हाउन, किंतु कृपया माफ् गरूस, म्यारो दगड़ फिविस् गढ़वळि मॉंज।’’ (संभव है, लेकिन कृपया मुझे माफ करते हुए मुझ से गढ़वाली में बात करें।’’
शेखर ने संवाद जारी रखते हुए कहा … ‘‘किंतु मी विंग् छु यटुख भाषा हब्रे निम्कि नीं छन् (किंतु मैं समझता हूं कि एक ही भाषा काफ़ी नहीं होती।)
पानसिंहजी ने सहमति जताते हुए कहा … ‘‘होस्, मीं हाला विंग छु (हां, मैं भी समझता हूं) लेकिन हम पहाड़ी लोग हैं और हमारी भाषा, संस्कृति, खान-पान, पहनावा और प्यार ही हमारी पहचान है। हमारे जीवन में बड़े-बड़े कष्ट हैं लेकिन हम पहाड़ी फिर भी बहुत मस्त हैं। हमारे जंगल, ये देवदार हमारे लिये चंदन से कम नहीं है, उसी तरह ये नदियां ये झरने, ये झीलें हमारे लिये रोम, पेरिस और लंदन से कम नहीं है। दूसरों की सहायता पर तो हर कोई जी लेता है लेकिन हम पहाड़ी लोग आत्मनिर्भर हैं हमें किसी की सहायता नहीं चाहिये। हम पहाड़ियों को हृदय बाहर से इन पहाड़ों की तरह सख़्त और अंदर से बर्फ़ जैसा नर्म और ठण्ड़ा है। एक असली पहाड़ी वो होता है जिसके दिल में पहाड़ हो और जिसका दिल भी पहाड़ हो। किसी से प्यार करते हैं तो बस प्यार करते हैं, दिल टूट भी जाए तो पिघल कर बहती हुई बर्फ़ की तरह बिखर कर भी आवाज़ नहीं करते। कुछ भी हो जाने पर भी हम पहाड़ियों के प्यार में खोट नहीं होती इसलिये हमारे प्यार पर कभी संदेह मत करना। आप बहुत भाग्यषाली हैं कि आप यहां आये, हम लोगों से मिले और माधव साहब के परिवार से आपका परिचय हुआ। ये परिवार बहुत प्यारा परिवार है। हम भी आप के आभारी हैं कि आप ने न केवल हमारे रहन-सहन, खान-पान, पहनावा अपनाया बल्की हमारी भाषा से प्यार किया और सीखा।’’
शेखर ने बहुत संक्षिप्त उत्तर दिया … ‘‘यो बैखू राजस्थानी सगळो मुंगक तिर्ळु।’’ (ये राजस्थानी मानुष आप पहाड़ी लोगों के इस प्रेम को याद रखेगा।)
पानसिंहजी और शेखर की बात समाप्त होती उससे पहले ही सामने व्हिस्परिंग टॉरेंट्स कैम्पिंग रिसॉर्ट के परंमरागत परिधान पहने गेट कीपर ने झुक कर हमारा अभिवादन करते हुए जसीलो गोसल्या (गुड़ इवनिंग) कह कर हमारा स्वागत किया। पानसिंहजी ने दूसरे दिन के घूमने के कार्यक्रम के लिये अपनी गाड़ी भेज देने का कह कर विदाई ली तो राघव भैय्या ने रात अधिक हो जाने और नींद आने का कह कर कहा कि बाकी बातें सुबह की चाय पर होगी। लेकिन मेरे मन में कुछ और योजना चल रही थी।
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