एक कौतुहल बनकर

एक कौतुहल बनकर
मन के आंगन में उतरी थी
छवी तुम्हारी।
सोचते ही सोचते
ना मालूम कब
आदत बन गयी।।
अब प्रतिक्षण प्रतिपल
प्रतीक्षा में खुले ह्रदय कपाट
बाट जोहते हैं​
नयनों के वातायन
अंतस आलोकित है
तुम्हारे उजास से।।
अब तुम्हारी आदत बन गयी,
मेरी पूजा वन्दना आराधना।
मेरी कवीता कल्पना रागिनी,
मेरी सन्ध्या आरती साधना।।
समय के साथ
ये सोच ये आदत
बन गये हैं जीवन क्रम।
टूटते नहीं हैं
आशा और विश्वास
टूटते जाते हैं बस भ्रम।।
कोई जलधारा
कर भी ले विश्राम
किसी प्यासे पोखर की गोद में।
रूकता नहीं है
निष्ठुर निर्लिप्त समय
कभी किसी आमोद प्रमोद में।।
ये समय है
जो नहीं ठहरता
और मेरा या तुम्हारा नहीं है।
हां बहता है
निरंतर फिर भी
जल सदृश्य जलधारा नहीं है।।
भर देता है
सब घाव मगर
ये घावों में लिप्त नहीं होता।
भर जाता है
जल का कुम्भ
समय कभी रिक्त नहीं होता।।
तुम्हारे बारे में
सोचने की आदत
समय सी निरंतर हो गयी है।
रूकी हुई है
ठहरे हुए पानी सी
फिर भी अभ्यंतर हो गयी है।।
मैं सोचता हूं
तुम भी समय हो
मेरे पास होकर भी नहीं हो।
और कभी कभी
लगता है कि
तुम नहीं होकर भी यहीं हो।।
तुम नहीं होकर भी यहीं हो।।
तुम नहीं होकर भी यहीं हो।।
हुकम सिंह ज़मीर

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