मंदाकिनी पार्ट 22 / Mandakini part 22

शेखर और रूखसाना की शे‘र ओ शायरी में हुए संवाद की बहुत नकारात्मक और सकारात्मक समीक्षा में मेरे मन-मस्तिष्क में नकारात्मकता का पलड़ा अधिक भारी होता जा रहा था। व्हिस्परिंग टॉरेंट्स कैम्पिंग रिसॉर्ट में अपने कमरे तक जाते-जाते प्रत्येक कदम के साथ मन और मस्तिष्क का बोझ असहनीय हो गया तो मैं बिस्तर पर जा कर निढ़ाल हो कर पड़ गयी। ना कपड़े बदले, ना बत्ती बंद की ना दरवाज़े की कुण्ड़ी लगाई।
मन के बोझ तले दबे हुए हाहाकार करते हृदय से लहू पानी बन कर कब आंखों से बह निकला और तकिया भिगो गया, पता नहीं। हृदय की तरफ आधी करवट लिये लेटी हुई मैं दाहिने हाथ से दुपट्टा दबाए अपनी सिसकियों का दम घोंटने का प्रयास कर रही थी, तभी किसी भंवर में फंसी डूबती-उतराती मेरी चेतना ने अनुभव किया कि कोई मेरे पार्ष्व में आ कर लेट गया है और धीरे से मुझे अपनी तरफ पलटा रहा है। जल प्रवाह में बहती हुई जलकुम्भी की तरह धीरे-धीरे पलटने के साथ मेरी आंखें खुली तो अंजली भाभी मेरे गालों से आंसू पौंछते और मुझे सहलाते हुए कह रही थी … ‘‘ये क्या अरूणिमा, तुम रो रही हो? क्यों?’’
मेरी घुटी हुई सिसकियों के सब्र का बांध टूट गया और फफकते हुए अंजली भाभी के सीने से लग कर बोलना चाहा लेकिन मैं कुछ कह ना सकी। मेरी सिसकियां और आंसू ही मेरी आवाज़ और मेरे शब्द थे जिन्हें अंजली भाभी ने समझ लिया था। उन्होंने मुझे थपथपाते हुए कहा … ‘‘अरूणिमा, शेखर को न समझ पाने के कारण ही तुम उनके बारे में विपरीत दिषा में सोच रही हो। याद करो शेखर की अंतिम बात जिस में ईद पर गले लगने का आमंत्रण था। इतनी चतुराई से सब के सामने गले लगने का आमंत्रण …। तुम समझ रही हो?’’
मुझे अंजली भाभी किसी देवदूत की तरह लगने लगी लेकिन मेरी शंका ने अंजली भाभी से पुछवाया … ‘‘और वो चांदनी से कहना कि तुम से मिल कर अच्छा लगा?’’
अंजली भाभी ने हंसते हुए कहा … ‘‘और क्या कहना चाहिये था? क्या ये कहना चाहिये था कि तुम से मिल कर अच्छा नहीं लगा। अरे पगली, ये तो औपचारिक शब्द हैं।‘‘
मेरी शंका के बादल छंटने लगे थे और शेखर के व्यक्तित्व की चमक फिर से उभरने लगी थी। अंजली भाभी ने मेरी आंखों पर बिखरी अलकों को हटा कर रही-सही छाया को दूर करते हुए कहा … सबसे महत्वपूर्ण बात ये कि कोई शेखर से प्रभावित हो कर क्या सोचता है इससे हमें क्या फ़र्क़ पड़ता है। हमें फ़र्क़ इस बात से पड़ता है कि शेखर किसी से प्रभावित हो कर क्या सोचते हैं। तुम भूल गयी कि जो शेखर मीना से प्रभावित नहीं हुए वो रूखसाना या चांदनी से …। धत्, और सुनो तुम्हारे भैय्या शेखर से बात करने उनके कमरे में गये हैं …’’
मेरी कल्पना में अंजली भाभी के चेहरे में शेखर व्यंग से मुस्कुराते हुए दिखे और भाभी के अंतिम शब्दों से मुझे लगा कि उन्होंने राघव भैय्या को मेरे और शेखर के बीच अंकुरित प्रेम की कोमल भावनाओं का रहस्य उद्घाटित कर दिया है लेकिन तभी दरवाज़ा खुलने की आवाज़ के साथ ही राघव भैय्या की आवाज़ आई … ‘‘सुनो भाई, मैंने शेखर से कल का कार्यक्रम तय कर लिया है। हम लोग सुबह जल्दी उठ कर मोटर साइकिल से हमारी सामूहिक क्रॉस कन्ट्री दौड और युद्ध अभ्यास के लिये हमारे कैम्पस में जाएंगे, जिसके लिये हमें छह बजे से पहले परेड़ मैदान में पहुंचना होगा। तुम लोग चाहे आराम से सोना लेकिन साढे नौ बजे तक तैयार हो जाना। तब तक मुखिया पानसिंहजी की गाड़ी आ जाएगी और हमारे वापस आते ही अगले आधे घंटे में हम घूमने निकल जाएंगे।’’
मेरी कल्पनाओं के केनवास पर राघव भैय्या और शेखर में मेरी आषाओं के उभर रहे सुंदर दृष्य पर जैसे मेरे हाथ से रंगों की तष्तरी छिटक गयी और नियति की इच्छा ने अपने ही पूर्व निष्चित दृष्य उभार दिये। लेकिन मैं ऐसी अप्रत्याषित परिस्थितियों को सहने की अभ्यस्त हो चुकी थी। मन में कुछ और चल रहा था और चेहरे पर जबरन आ बैठी बनावटी भावनाएं भी अंजली भाभी और राघव भैय्या के साथ चली गयी।
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रात के ग्यारह बज चुके थे, लेकिन आंखों में एक बार फिर शेखर व रूखसाना की बैतबाज़ी में उनकी भावभंगिमाओं ने डेरा डाल रखा था और कानों में रह-रह कर चांदनी को कहे गये शेखर के शब्द ‘‘तिम्रो आभार, तिम्यै अंग्वाळ पौंडल्या चितौयो’’ गूंज रहे थे। अपने अंतःदहन की तपिष से बेचैन हो कर मैं बिस्तर से उठी और मेरे कमरे का पीछे वाला दरवाज़ा खोल कर टेरेस पर आई। कैम्पटी फॉल्स की उत्ताल जलराषि से सद्यस्नात चांदनी में नहायी और हारसिंगार, रजनीगंधा व रातरानी के झुरमुटों को छू कर बहती हुई हवा सबकुछ होने पर भी मेरी तरह अकेले होने का विरही गीत गुनगुनाते हुए मेरा शेखर का हो जाने पर भी नहीं होना और शेखर का होना भी मेरे लिये नहीं होना बता रही थी।
आंखें बार-बार इस आषा में शेखर के कमरे की तरफ जाती कि शायद वे भी मेरी तरह जाग रहे हों और टेरेस पर आ जाएं, लेकिन टेरेस की मुंडेर देवदार के वृक्षों और मसूरी की पहाडियों से भी अधिक ऊंची हो गयी थी जिन्हें लांघना मेरे लिये संभव नहीं था। नीचे घाटी में कोई नयी-नयी सगाई के बाद विरहिणी युवती दूर पहाड़ियों में दूसरे गांव में बैठे अपने प्रिय के लिये गा रही थी …
तुमि लिखुदी पात सुआ तुमि लिखुदी पात
कब खतम होली यो दूरी हमार बिचमां
तेरी मेरी भेंट होलि कब दगड़िया साथ।।
अर्थात हे प्रिय मैं तुम्हें पत्र लिख रही हूं, हमारे बीच ये दूरी कब समाप्त होगी और तेरी मेरी भेंट कब होगी।
मुझे लगा वो मेरी ही भावना व्यक्त कर रही है और उधर दूसरे गावं से हवाओं पर तैरता हुआ संदेष आया …
मन मेरो तड़पीगे जन बगीकण टोंड़ा कु माछ
तुम म्यारो तड़गे चिफ़ दगड़ी
तुमरू संदेष पा कर मन झुमके झुमके नाच
अर्थात मेरे हृदय की नांव तालाब में मछलियों की तरह तड़प कर डगमगा रही है, तुम मेरा विष्वास करो कि जब तुम्हारा पत्र मिलता है तो मन झूम-झूम कर नाचने लगता है।
और मुझे याद आये अंजली भाभी के शब्दों ने नाचने पर विवष कर दिया। उन्होंने कितने विष्वास से अपने शेखर भैय्या के लिये कहा था … ‘‘याद करो शेखर की अंतिम बात जिस में ईद पर गले लगने का आमंत्रण था। इतनी चतुराई से सब के सामने गले लगने का आमंत्रण …। तुम समझ रही हो?’’
रात के बारह बजने वाले थे, चौदहवीं का चन्द्रमा मध्य आकाष में मेरे प्रफुल्लित मन को प्रतिबिंबित कर रहा था। मैंने तेज होते हृदय की धडकन के साथ रूक-रूक कर अपने कमरे का आंगन पार किया और दरवाज़ा धीरे से खोल कर शेखर के कमरे के सामने जा पहुंची। डर से बढ़ती घड़कनों के साथ मैं शेखर के कमरे का दरवाज़ा थपथपाती रही लेकिन दरवाज़ा नहीं खुला। उस ठंडी रात में भी मैं डर और चिंता से अपने माथे पर छलक आने वाली पसीने की बूंदें अनुभव कर रही थी। मैं निर्णय नहीं कर पा रही थी कि वापस लौट जाऊं या दरवाज़ा और जोर से खटखटाऊं? मेरा सारा उल्हास हताषा में बदलने और धमनियों में भागता हुआ रक्त थकने लगा था। हृदय की धडकन कंपकंपी बन कर पांवों की थरथराहट बन चुकी थी और मैं रूंआसी हो कर दरवाज़े पर ही बैठने लगी तो मेरी दृष्टी कुण्ड़ी पर गयी जो बाहर से बंद थी।
मेरे आष्चर्य की सीमा नहीं थी और हजारों प्रष्न बिजली की तरह मेरी नस-नस में तड़पने लगे। मैंने जल्दी से कुण्ड़ी खोली और विस्फोट से चुंधियाई आंखों के सामने अंधेरा छा गया, वहां कोई नहीं था। मेरी जिज्ञासा ने मुझे निर्लज बना दिया और मैंने बाथरूम का दरवाज़ा घकिया कर अंदर देखा लेकिन वहां भी सभी उपकरण मुझ से अधिक मौन थे।
मैंने वहां अधिक रूकना उचित नहीं समझा और सच तो यह है कि मेरे डर ने मुझे वहां से बदहवास बाहर निकाला और मैं बाहर आयी तो अंजली भाभी मुझे संभाल कर मेरे कमरे में ले आई जो शेखर के कमरे पर मेरी थपथपाहट को सुन कर आई थी। मैंने घबराते हुए उन्हें सारी बात बताई तो वे भी सोच और चिंता में पड़ गयी। सभी संभावनाओं और आषंकाओं पर विचार करने पर भी हमें सूझ ही नहीं पा रहा था कि हम क्या करें? कुछ न सूझा तो हम ने रिसॉर्ट के गेट पर जा कर चौकीदार से पूछा तो उसने बताया कि दो महिलाएं आयी थीं और हम लोगों के बारे में पूछ रही थी। थोड़ी देर बाद वो चली और उसके कुछ ही समय बाद हमारे साथ वाले एक साहब रावतजी की टापरी की तरफ गये हैं।
मेरे डूबते हुए हृदय के साथ शेखर पर अंजली भाभी के विष्वास की नाव भी डगमगा गयी थी। देवदारों से छन कर आ रही चांदनी की किरणें तीखे शूल सी चुभने लगी और केतकी, गुलाब, चंपक, जूही, गेंदा, मोगरा व गुलदाउदी पर जुगनूं उड़ती हुई अग्निकणिकाओं की तरह आषंकाओं के बारूद को झुलसाने लगी। हम ने परस्पर आंखों-आंखों में देखते हुए संकेत से ही एक निर्णय लिया और रावतजी की टापरी की तरफ चल पड़ी। रावतजी के टापरी से थोड़ा ही पहले हमारे आगे चांदनी को अपनी मां के साथ जाते देख कर हमारे पांव ठिठक गये। हमने छिपते हुए उनके समीप जा कर उनकी बात सुनने का प्रयास किया। हम उनकी बात तो नहीं सुन पाये लेकिन उनकी बातों में शेखर का नाम और उससे मुलाक़ात की बातें हमारे कानों ने सुन कर ही सारी कल्पनाओं को साकार कर दिया और हमारी शेखर की तलाष खत्म हो गयी। बहुत भारी मन और उससे भी कहीं अधिक भारी कदमों से हम मेरे कमरे में लौट आये। रात के चार बजे तक अंजली भाभी मुझे सांत्वना देते हुए कल ही वापस देहरादून लौटने और भागीरथ के रिष्ते को स्वीकार करने का निर्णय मां को बताने की सलाह देती रही और राघव भैय्या के जागने का समय होना बताते हुए मुझे सब कुछ भूल कर सो जाने के लिये कह कर अपने कमरे में चली गयी।
मेरी आंखों में नींद कहां? वहां तो पिछले एक महीने में शेखर के सामीप्य की सुखद स्मृतियों की जली हुई दुनियां की सुलगती हुई चिता की राख थी जो पलकों में ठहर कर सूख चुके आंसूओं के झरनों से बनी सूखी पगडंडियों पर बिखरी थी। मै एक बार फिर मेरे कमरे से बाहर पीछे वाले टेरेस पर खड़ी हुई कैम्पटी फॉल्स के गिरते हुए पानी की आवाज़ में मेरे रूदन की गूंज सुन रही थी। नीचे घाटी में विधवा की सूनी मांग की तरह उदास सूने रास्तों पर पहरेदारी कर रहे देवदारों की छाया उधर पहाड़ी के पीछे जा रहे चांद की तिरछी हो चुकी किरणों के सहारे पहाड़ियों पर चढ़ने लगी थी। मुझे भी मेरे भाग्य का चंद्रमा मुझ से मुंह छिपाता नज़र आने लगा और मैंने रोषनी की इच्छा में तारों की तरफ हाथ पसारे तो वो भी डूबने लगे।
मैंने अपने अंदर के हाहाकार से घबरा कर चिल्लाना चाहा तभी मालीवाल महादेव मंदिर की घंटियों के साथ ही सामने कांडी गांव के भद्र देवता मंदिर और दूर भद्रकाली व संतरादेवी मंदिर की घंटियों से घाटी गूंजने लगी। राघव भैय्या के कमरे की बत्ती ने उनके उठने का संकेत दिया तो मैं अपने कमरे में जाने के लिये घूम भी नहीं पाई कि राघव भैय्या टेरेस पर आ कर मुझे देख कर बोले … ‘‘अरे अरूणिमा तुम सोई नहीं या जल्दी जाग गयी?’’
मैं तुरंत कोई जवाब नहीं दे सकी तो राघव भैय्या ने ही मेरी दुविधा दूर करते हुए कहा … ‘‘हां भाई ये पहाड़ों की शांती में एक चिडिया भी चहकती है तो उसकी गूंज दूर तक और देर तक सुनाई देती है। फिर ये तो मंदिरों की बड़ी-बड़ी घंटियों की आवाज़े हैं और मुझे जगाने के लिये देखो, शेखर ने मालीवाल महादेव मंदिर की घंटियां कितनी जोर से बजाई है कि अभी तक कान भांय-भांय कर रहा है। अब इन घंटियों की गूंज से मेरे जैसे नींद के दास की आंख खुल सकती है तो तुम तो …..?
राघव भैय्या आगे क्या कह रहे थे मुझे सुनने की ना तो आतुरता थी ना आवष्यकता। घंटियों की आवाज़ के साथ पहाडी के पीछे अरूणिमा की चादर ओढ़ कर सोने जा रहे चंद्रमा की ज्योति सूर्योदय में बदलने के साथ हर चीज स्पष्ट होने लगी थी। मैं भूल गयी थी कि शेखर का षिवालय से कितना गहरा लगाव है और रात में कैम्पिंग रिसॉर्ट से पलायन की भूमिका तो रास्ते में आते समय मालीवाल षिव मंदिर में हो रही आरती में बन चुकी थी जिसे रूखसाना की शायरी और चांदनी के रूप लावण्य का आमंत्रण भी धूमिल नहीं कर सका और समय मिलते ही …!!
सूर्योदय हो रहा था लेकिन मेरा चंद्रमा अस्त नहीं हुआ थो और वो दूर कहीं पष्चिम में पूर्णिमा का चांद बन कर फिर से मुझे अपनी चांदनी में नहलाने के लिये मेरे पास लौट आने को था। हां, उधार की चमक वाले झूठे तारे अपना मुंह छिपा चुके थे। चहकती हुई चिडियां मुझे चिढ़ा रही थी और कोयल कूहु-कुहु कूक कर पूछ रही थी कहो अरूणिमा कैसी रही और मौलसरी के झुरमुटों में तोतों के झुंड टांय-टांय कर मेरी भ्रमित बुद्धि से हुए व्यर्थ विलाप और रात्रि जागरण पर कहकहे लगा रहे थे।
तब एक कौव्वे की कांव-कांव ने मुझे चेताया और मेरे कानों में राघव भैय्या की आवाज़ आयी जो कह रहे थे … ‘‘अरूणिमा तुम सुन रही हो मैं क्या कह रहा हूं?’’
मैं वर्तमान में लौट आयी और सकपकाते हुए बोली … ‘‘हं, हां … हां हां भैय्या वो सुबह जल्दी उठने की आदत हैं ना, तो बस …!!
राघव भैय्या ने मेरी बात काटते हुए कहा … ‘‘अच्छा अच्छा ठीक है। मैं चलता हूं, शेखर मेरी प्रतीक्षा कर रहा है।’’
राघव भैय्या जा चुके थे और मैं शेखर के व्यक्तित्व में खोई हुई सोच रही थी कि एक ही रात में मैंने कितने रंग देख लिये। मेरा मन कर रहा था मैं जा कर अंजली भाभी से लिपट जाऊं और उन्हें बताऊं कि उनके शेखर भैय्या पर अविष्वास कर के मेरे साथ उन्होंने भी पाप किया है लेकिन मेरी ही तरह रात भर की जागी हुई होने से मैंने उन्हें न जगा कर अपनी ख़ुषी की झौंके में बिस्तर पर गिरी और अवसर की प्रतीक्षा कर रही नींद ने मेरी पलकों पर एकदम से धावा कर दिया।
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