वर्णसंकरता (सामाजिक वर्ण व्यवस्था में वेद और पुराणों की भूमिका)

वर्णसंकरता (सामाजिक वर्ण व्यवस्था में वेद और पुराणों की भूमिका)
आज तीन वर्ष पुरानी एक पोस्ट ने वर्णसंकर शब्द की याद दिला दी। वैसे इस विषय पर विचार और मंथन तो वर्ष 1992 से ही प्रारंभ हो गया था जो वर्ष 2012 में प्रकाशित मेरी पुस्तक ‘नाथ सम्प्रदाय इतिहास एवं दर्शन’ में भी सुसंगत होने के कारण एक ऐतिहासिक गवेषणा के रूप में अंकित है फिर विषय की ज्वलनशीलता ने इसे फिर से ‘अग्निपुष्प’ की समिधा में एक आहुती बना दिया।
शब्द बहुत छोटा है लेकिन इसमें सदियां नहीं वरन् युग युगान्तर सिमटे हुए हैं। आईये देखते हैं कैसे?
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आज तीन वर्ष पुरानी एक पोस्ट ने वर्णसंकर शब्द की याद दिला दी। वैसे इस विषय पर विचार और मंथन तो वर्ष 1992 से ही प्रारंभ हो गया था जो वर्ष 2012 में प्रकाशित मेरी पुस्तक ‘नाथ सम्प्रदाय इतिहास एवं दर्शन’ में भी सुसंगत होने के कारण एक ऐतिहासिक गवेषणा के रूप में अंकित है फिर विषय की ज्वलनशीलता ने इसे फिर से ‘अग्निपुष्प’ की समिधा में एक आहुती बना दिया।
शब्द बहुत छोटा है लेकिन इसमें सदियां नहीं वरन् युग युगान्तर सिमटे हुए हैं। आईये देखते हैं कैसे?
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भारत में मानव समाज का अस्तित्व सैंकडों हजारों वर्ष पूर्व से सिद्ध है लेकिन उनकी जातीय व्यवस्था के निर्माण के किसी निश्चित समय का अनुमान नहीं मिलता। इस संबन्ध में बहस आज भी जारी है। उदाहरणार्थ ईसा से 2000 से 2600 वर्ष पूर्व की सिन्धु घटी के निवासियों की जातीयता का प्रश्न आज भी अनुत्तरित है। बहुत समय पूर्व से यह धारणा चली आ रही है, कि इस सभ्यता की समाप्ति के दौर में बहुत से समूह जिनमें सर्वाधिक संख्या आर्यों की थी, इस प्रदेश में आये। किन्तु पश्चातवर्ती पुरातात्त्विक साक्ष्यों ने इस सिद्धान्त पर भी प्रश्नवाचक चिन्ह लगा दिया है। आज सामान्यतः यह सिद्धान्त स्वीकार किया जा रहा है, कि काफी समय पहले इस भू-भाग पर ऐसे लोगों का आधिपत्य था जिनकी भाषा ईरान और यूरोप की सजातीय थी और इनके मध्य व्यापारिक संबन्ध थे। ऐसा माना जाता है, कि ईसा से लगभग 1500 से 2000 वर्ष पूर्व ईरान और यूरोप से कुछ समूह उत्तर-पश्चिमी तथा इसके पश्चात् उत्तरी-मध्य भारत में आये और कालान्तर में इस भू-भाग के वातावरण को आत्मसात् करने के बाद अलग-अलग समूहों में दक्षिण तथा पूर्व की ओर बढ़ गये। जातिय प्रतिबन्धों की अपेक्षा यह प्रक्रिया अन्तरवर्णीय विवाहों के कारण हुई होगी। यदि विचार किया जावे तो यह प्रक्रिया आज भी जारी हैं। यद्यपि वर्तमान में इस प्रक्रिया को उन लोगों के भी विरोध का सामना करना पड़ रहा है जिनकी स्वयं की जाति उस प्रारम्भिक ऐेतिहासिक समय में इस प्रक्रिया के परिणाम स्वरूप बनी थी।
इस प्रकार वर्तमान भारत की जनसंख्या में बहुत से जाति समूह हैं जिन्हें क्षेत्रीय आधार पर सामूहिक रूप से भारतीय कहकर पुकारा जाता है। अन्तरवर्णीय विवाहों से जातियों का जो विकास प्रारम्भ हुआ था, वह आज भी अन्तर्जातीय विवाह के द्वारा अपने विकास पथ पर चल रहा है, किन्तु इतना अवश्य है, कि अन्तर्जातीय विवाहों से बनने वाले समूहों की अब कोई नवीन संज्ञा प्रकाश में नहीं आ रही। इसका दूसरा प्रभाव यह रहा कि वर्ण व्यवस्था में मानव समूहों के पदनाम जो शारीरिक बाह्य विशेषणों (त्वचा के रंग उदाहरणार्थ गोरेपन से अधिक गहरे रंग) पर आद्यारित थे वह जातीय व्यवस्था में शरीरस्थ रक्त समूह पर आद्यारित हो गये।
सामाजिक व्यवस्था के विकास क्रम में वेदों की भूमिका काफी महत्त्वपूर्ण है। वेदों की चर्चा आती है तो वर्ण व्यवस्था की बात आती है। वर्ण से तात्पर्य भारत के परम्परागत चार हिन्दू सामाजिक वर्गों में से कोई एक है। हालांकि ‘वर्ण’ पद का संस्कृत में अर्थ ‘रंग’ को इंगित करता है, कि विभिन्न वर्गों में अन्तर मूलतः त्वचा के रंग की श्रेणी के अन्तर पर आद्यारित था। (यह तथ्य भारत के अपेक्षाकृत गहरे रंग वाले प्राचीन आदिवासियों तथा सुन्दर त्वचा वाले आर्यों के मध्य सत्य हो सकता है। क्योंकि रंग अर्थात् वर्ण के आधार पर यजुर्वेद नामक वैदिक धर्मग्रन्थ को दो समूहों (शुक्ल और कृष्ण) में बांटा गया है। ‘वर्ण’ अथवा ‘रंग’ की अवधारणा को वर्गीकरण के साधन की संज्ञा दी जा सकती है। वर्ण का परिचय ऋग्वेद के मंत्र 10-90 से प्रारंभ होता है जिसमें यह उद्घोषित किया गया है, कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सृष्टि के समय परम पुरुष के क्रमषः मुंह, भुजाओें, जंघा तथा चरणों से प्रकट हुए। चारों वर्णों में विषमताओं के अनेक समूह हैं। अनार्य आदिवासी शूद्र प्रथम तीनों वर्णों से भिन्न है जिसका उपनयन संस्कार के पश्चात आध्यात्मिक पुनर्जन्म (द्विज) होकर वह आर्य की श्रेणी में आता है और उक्त तीनों वर्णों की सेवा में रहता है। वैश्य एक सामान्य व्यक्ति चरवाहे और कृषक के रूप में सत्ताधारी दोनों उच्च वर्णों अर्थात् क्षत्रिय अथवा सामन्तों तथा पुरोहित व ब्राह्मणों से विषमता रखता है। ब्राह्मण और क्षत्रिय भी परस्पर यह भेद रखते हैं, कि ब्राह्मण क्षत्रियों के पुरोहित हैं जबकि वास्तविक सत्ता क्षत्रियों के पास है। पुराने ग्रन्थ और उपख्यानों में वंशानुगत सदस्यता की अपेक्षा विभिन्न वर्गों के कार्यों पर अधिक जोर दिया गया है।
समाज के परम्परागत विधिवेताओं की दृष्टि में चारों वर्णों की व्यवस्था आधारभूत तथा महत्त्वपूर्ण थी। उन्होंने प्रत्येक वर्ण के लिये उत्तरदायित्वों के विशिष्ट तथा पृथक् पृथक् समूह बनाये। तद्नुसार ब्राह्मण का कार्य अघ्ययन, अध्यापन और सलाह देना था। क्षत्रिय व सामन्तों का कार्य रक्षा करना, वैश्य का कार्य उत्पादन व व्यवसाय और दास अथवा शूद्र का कार्य सेवा करना था। ध्यान रहे, कि सेवा पद से ऐसे समूह से तात्पर्य है, जो शारीरिक अस्पृश्यता की श्रेणी में नहीं आता। नाई, धोबी, बरतन साफ करने वाला, झाडू-पौछा, मजदूरी आदि काम करने वाले इस श्रेणी में आते हैं।
वर्णों के मध्य अनुलोम, प्रतिलोम, संस्कार भ्रष्टता, बहिष्कृत समाज अथवा इन विवाहों से उत्पन्न वर्णसंकर जातियों में हुए (अन्तर्वर्णीय) विवाहों के कारण भारत में जातियों की इतनी अधिकता है। अब वर्णसंकरता का मूल भी देखा जावे तो भगवान शिव द्वारा पार्वती के आग्रह पर बनवाई गयी स्वर्ण लंका के गृह प्रवेश यज्ञ इतिहास दर्शाता है, कि वर्ण व्यवस्था एक सच्चाई की अपेक्षा केवल एक सामाजिक आदर्ष थी। समझा जाता है, कि देवताओं के लिये पुरोहिताई करने वाले विश्रवा ऋषी द्वारा काम के वशीभूत हो असुर माल्यवाहन की पुत्री कैकसी से रावण बन्धुओं की उत्पती वर्णसंकरता का सबसे पहला उदाहरण है। इसी प्रकार विष्णु द्वारा जालन्धर असुर की पत्नि वृन्दा के साथ छल से सम्भोग, विष्णु द्वारा ही समुद्र मंथन से प्रकट लक्ष्मी (लक्ष्मी को भृगु ऋषी की पुत्री व दानवों के गुरू शुक्राचार्य की बहन होना भी कहा जाता है), इन्द्र व शुक्राचार्य द्वारा पुलोमा दैत्य पुत्रियों क्रमषः और शचि व जयन्ती से विवाह (कोई विधिवत विवाह संस्कार नहीं वरन् आज के आधुनिक ‘लिव इन रिलेशनशिप’ की तर्ज पर साथ रहना) पौराणिक कथाओं व महाकाव्यों में वर्णित है। किन्तु, इन ‘विवाहों’ से कोई सन्तानोत्पती होना ज्ञात नहीं है। मधु दैत्य की कन्या मधुमति को सूर्यवंशी हर्यष्व, वृषपर्वा दैत्य की पुत्री उर्वशी को नहुष इन्द्र के पिता ययाति, बाण दैत्य की कन्या को अनिरूद्ध और वज्रनाभ दैत्य की तीन कन्याओं को यादव कुल ने अपनी वधु बनाया। इस श्रंखला में ब्राह्मण व क्षत्रिय कहे जाने वाले उच्च वर्णों ने अपने से निम्न वर्णों की स्त्रीयों को उपयोग में लेकर उनसे उत्पन्न सन्तानों को अपने कुल, गोत्र व सम्पत्ति से वंचित कर दिया किन्तु समर्थ कुलों के क्षत्रियों व ब्राह्मण स्त्री-पुरूषों द्वारा किये गये अनैतिक कामाचार से उत्पन्न सन्तानों को सम्मानित पद दिये जाते रहे। उदाहरणार्थ चन्द्रमा द्वारा अपने ही गुरू वृहस्पती की पत्नि तारा से उत्पन्न पुत्र को बुद्ध ग्रह, चन्द्रमा के सहयोग से इन्द्र व गौतम ऋषी की पत्नि अहल्या से सम्भोग के अपराध को केवल सीमित समय के लिये पाषाण शिला में बन्दी बनाने का तुच्छ दण्ड देना आदि है।
इसी क्रम में विश्वामित्र द्वारा मेंनका से किये गये काम व्यवहार से उत्पन्न पुत्रि शकुन्तला और शकुन्तला द्वारा दुष्यन्त से उत्पन्न पुत्र भरत, मत्स्यगंधा सत्यवती व शान्तनूं की सन्तानों को हेय नहीं माना गया। क्योंकि ये सभी समर्थ, प्रभावशाली और उच्च वर्ण कहे जाने वाले कुलों से संबद्ध स्त्री-पुरूषों के कामाचार का परिणाम थे। ब्राह्मण वर्ण के भृगु ऋषी और दानव हिरण्यकष्यप की पुत्री उषाणा/ऊषा जिसे काव्यमाता भी कहा जाता है, के मिलन से उत्पन्न शुक्राचार्य को महर्षी अथर्व आंगिरस द्वारा उस समय के प्रभावषाली ब्राह्मण पिता भृगु की सन्तान होने के कारण अनदेखा करने का तो साहस नहीं किया जा सका किन्तु, असुर पुत्री की वर्णसंकर सन्तान होने और अपने पुत्र वृहस्पति के कारण पक्षपात किया गया। निम्न वर्ण की स्त्री से उत्पन्न सन्तान को या तो पिता के कुल, गोत्र व सम्पत्ति से वंचित किया गया अथवा किसी न किसी यत्न द्वारा उसके वंशबीज को प्रस्फुटित नहीं होने दिया गया। इसका राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक कारण संक्षेप में यह था कि ऐेसी सन्तानों को उत्तराधिकार में मिलने वाली सम्पत्ति निम्न वर्ण को स्थानान्तरित नहीं हो सके। मत्स्यगंधा सत्यवती के पिता द्वारा शान्तनूं से अपनी पुत्री की सन्तान के लिये उत्तराधिकार संबंधी लिया गया वचन इसका प्रमाण है। अन्यथा संभव है, कि सन्तानहीन चित्रांगद और विचित्रवीर्य का नाम भी इतिहास में नहीं होता। कौन जानता है, कि चित्रांगद की किसी गन्धर्व द्वारा हत्या और विचित्रवीर्य का क्षय रोग से पीडित होकर सन्तानहीन मरना भी कोई षड़यन्त्र हो?
बहरहाल, मत्स्यगंधा सत्यवती और पाराषर ऋषी के औरस पुत्र वेदव्यास पर ‘देवचरितं चरेत’ का नियम लगाया जाकर उन्हें ब्राह्मण मानने से तो नकार दिया गया किन्तु अम्बा व अम्बालिका से नियोग के लिये भीष्म द्वारा मना किये जाने पर ब्राह्मण नहीं माने गये इसी ब्राह्मण वेदव्यास को नियुक्त कर लिया जाता है।
तात्पर्य यह कि ढूंढने पर ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे जो इस तथ्य को सिद्ध करते हैं, कि उच्च वर्ण के अन्तवर्णीय स्त्री-पुरूषों की सन्तानों की वर्णसंकरता इतनी कलुषित नहीं थी, कि उन्हें पिता के कुल, गोत्र व सम्पत्ति से वंचित किया जावे किन्तु, निम्न वर्ण की स्त्री की और उच्च वर्ण के पुरूष अथवा उच्च वर्ण की स्त्री और निम्न वर्ण के पुरूष से उत्पन्न सन्तानों पर कुल, गोत्र और सम्पत्ति के उत्तराधिकार के हस्तान्तरण का नियम अपवाद के अतिरिक्त कठोर रूप में विद्यमान था।
इस प्रकार जो समूह उत्पन्न हुए वो कालान्तर में एक पृथक जाति बन गयी। तत्कालीन जम्बूद्वीप के आर्यों (निश्चय ही ब्राह्मण व क्षत्रियों) के वर्णसंकर वृक्ष के फलों में काशी, कोशल, कौशाम्बी, कन्नौज, कुरूसंघ, कलिंग, कपिलवस्तु, शाक्य, साकेत, सौवीर, पांचाल, आन्ध्र, अस्सक, चोल, चेर, पाण्ड्य, अंग, बंग, विदेह, धन्यकंटक, जैतवन, नालंदा, तक्षशिला, उज्जैयिनी, मथुरा, मद्र, मत्स्य, मिथिला आदि सहित मगध भी एक साम्राज्य था। इस साम्राज्य के नायक जरासंध से लेकर बिम्बसार तक नवीन जातियों के निर्माण की एक श्रंखला अनवरत जुडी हुई है। पुरोहित विश्रवा व असुरपुत्री कैकसी से उत्पन्न वर्णसंकर सन्तानों में रावणकुल ने तो अपने आप को ब्राह्मण वर्ण में पुनः स्थापित कर लिया और ब्राह्मणों ने भी उसे गर्व का हेतु होने से स्वीकार कर लिया किन्तु मत्स्यगंधा सत्यवती और पाराशर ऋषी के औरस पुत्र वेदव्यास पर ‘देवचरितं चरेत’ का नियम लगाया जाकर उन्हें ब्राह्मण मानने से नकार दिया गया। इसी प्रकार क्षत्रिय कुल के क्षत्रिय कुल के यादवों को 18 वर्ष तक इधर-उधर भागने पर विवश करने के ऊपरान्त भी मगध नरेश जरासंध और उसके बन्धुओं को रावण की तरह मान्यता नहीं मिल सकी।
संघर्ष की यही स्थिति ब्राह्मण वर्ण और क्षत्रिय वर्ण के ऋषियों की रही। ऋषी भी राजऋषी, ब्रह्मऋषी, देवऋषी और महर्षी संज्ञक जातियों में बंट गये। क्षत्रिय विश्वामित्र का ब्राह्मणत्व ब्राह्मण वर्ण के ऋषियों को अपने क्षेत्र में अतिक्रमण के रूप में दिख रहा था तो ब्राह्मण परशूराम ने किसी भी क्षत्रिय को शिष्य नहीं बनाने की शपथ के साथ क्षत्रियता अपना ली। इसी प्रकार कैकयी के पिता कैकेय, विदेह के जनक का क्षत्रिय होते हुए और वाल्मीकि का शूद्र (बाद में इन्हें ब्राह्मण माना गया) होते हुए ब्रह्म के संबंध में ज्ञान बढा लेना ब्राह्मण वर्ण के गौतम को इतना अखर गया कि उसके द्वारा ऐसे सूक्तों की रचना की गयी कि यदि कोई (शूद्र हो या क्षत्रिय) किसी ब्राह्मण को गाली दे अथवा मारे तो उसका वही अंग कट डाला जावे, शूद्र यदि वेदपाठ सुन ले तो कान में पिघला हुआ शीशा डाल दिया जावे और वेद को पढ़ ले तो जिव्हा काट दी जावे। यहां तक कि ब्राह्मणों को अन्य वर्णों से श्रेष्ठ सिद्ध करने के उपक्रम में गौतम ऋषी ने ब्रह्मा सहित यज्ञों के देवताओं को नितान्त कल्पित बताकर राजर्षियों (वे ऋषी जो क्षत्रिय और राजकुल से संबंधित थे) के ज्ञान को पाखण्ड़ तक कह दिया। इसीलिये विश्वामित्र को अपने यजमान त्रिशंकु के लिये पृथक स्वर्ग की रचना करनी पड़़ी।
समाज में स्त्रियों का जितना शोषण ‘आर्य’ और वेदानुयायी ब्राह्मण कहे जाने वाले समूह ने किया उतना अन्यत्र ढूंढने से नहीं मिलता। आर्यों द्वारा अपनी काम वासना की पूर्ति के लिये अन्य जातियों की सुन्दर स्त्रियों को लोभ-लालच से क्रय कर लेना, छल-बल से वश में कर लेना, बलपूर्वक हरण कर लेना, मूर्छित अथवा मदान्ध युवतियों का शील हरण करना आदि विधियों को विवाह की संज्ञा दी गयी किन्तु, उनसे उत्पन्न होने वाली सन्तानों को अपने कुल, गोत्र, सम्पत्ति का उत्तराधिकार नहीं दिया गया। इस क्रम सोपान में पहले प्रतिलोम विवाह से उत्पन्न सन्तान को ही और बाद में अनुलोम-प्रतिलोम विवाह से उत्पन्न सन्तानों को वर्णसंकर घोषित किया जाकर उन्हें अपना उपजीवी बनाया जाकर उनकी पृथक जाति/जातियां बना दी गयी।
हां, इस षड़यन्त्र में पुरोहितों द्वारा यज्ञ पाखण्ड़ की भूमिका निभाने के फलस्वरूप दान दक्षिणा के रूप में इन सन्तानों को दास और दासी के रूप में दिया गया। अपने आश्रयदाता क्षत्रिय को प्रसन्न करने के लिये इन पुरोहितों द्वारा वेदों में ऐेसी तर्क विथियों का निर्माण किया जाता रहा जिससे उनको स्वर्ण, दासी, मांस और सत्ता के निकट रहने का सुख मिलता रहे। फिर चाहे कात्यायन, वररूचि, शौनक, मनु और वषिष्ठ द्वारा ऐेसी स्मृतियों की रचना में अपने स्वामियों के अधिकारों का बढचढ कर वर्णन ही क्यों न किया गया हो।
इस श्रंखला में वे स्त्रियां निम्नतम श्रेणी में रही जो दासी के रूप में रखी गयी और उन्हें विवाहिता होने की स्थिति भी प्राप्त नहीं हो सकी। वेदों की मूल व्यवस्था अनुसार कन्या को आजीवन कुमारी रहने, अपना वर स्वेच्छा से चुनने की स्वतन्त्रता थी और यह भी कि वह स्वेच्छा से चुने वर के साथ आजीवन रहने के लिये बाध्य भी नहीं थी। आंगिरस, वैशम्पायन, भारद्वाज, ऐेतरेय, गौतम, आपस्तम्ब, वशिष्ठ, बोधायन, शौनक, सांख्यान, कात्यायन, पाणिनी ने समाज में स्वयं और स्त्रियों की वेदों से इतर जो सामाजिक, वैवाहिक, पारिवारिक, याज्ञिक, आर्थिक और राजनीतिक मर्यादा स्थापित की तद्नुसारः-
1. बालिका कन्या अवस्था (प्रथम बार रजस्वला होना) प्राप्त करने के बाद कुमारी न रहे।
2. कन्या अपना वर स्वंय नहीं चुन सकती।
3. विवाह पश्चात आजीवन उसी पुरूष की पत्नि रहे। (विधवा होने पर पुनर्विवाह न करे)।
4. अपने पती की अन्य स्त्रियों से ईर्ष्या न करे।
5. स्त्री केवल सन्तानोत्पति का हेतुक नहीं होगी।
6. स्त्री दान में दी गयी और अपने पति के अधीन होगी।
7. याज्ञिक और धार्मिक कार्यों में ब्राह्मण को स्त्री का स्थान प्राप्त होगा और उसका दायभाग उसके पुत्र को प्राप्त होगा।
8. स्त्री पुरूष कीजीवन संगिनी और अभिन्न होगी किन्तु उस पर पति व पुत्र का अधिकार होगा।
9. एक पुरूष की अनेक पत्नियां होंगी किन्तु स्त्री का केवल एक ही पति होगा।
10. असवर्ण विवाहों से उत्पन्न सन्तानों को दायभाग प्राप्त नहीं होगा।
11. असवर्ण विवाहों से उत्पन्न सन्तानों को वर्ण और कुल गोत्र प्राप्त नहीं होगा।
12. अनुलोम व प्रतिलोम विवाह से उत्पन्न होने वाली सन्तानों की पृथक जाति होगी।
13. विवाह के आठ प्रकार क्रमषः
1. ब्राह्म विवाह। इस विवाह के अन्तर्गत ब्राह्मण पिता ब्राह्मण वर को जल का अर्ध्य देकर कन्या अर्पित करेगा।
2. देव विवाह। इस विवाह के अन्तर्गत क्षत्रिय पिता कन्या को वस्त्र और आभूषणों सहित पुरोहित को देगा।
3. आर्ष विवाह। इस विवाह के अन्तर्गत पिता गाय अथवा बैल के बदले (षुल्क रूप मेंद्ध लेकर कन्या वर को देगा।
4. गान्धर्व विवाह। इस विवाह के अन्तर्गत वयस्क युवक-युवती परस्पर एक दूसरे को वरण करेंगें।
5. क्षात्र विवाह। क्षत्रिय पुरूष क्षत्रिय कन्या के संबंधियों को युद्ध में हराकर बलपूर्वक कन्या का हरण करेगा। इस विवाह को राक्षस विवाह भी कहा गया।
6. मानुष विवाह। इस विवाह के अन्तर्ग ब्राह्मण और क्षत्रिय पुरूष शूद्र कन्या को उसके पिता अथवा परिजनों से मूल्य देकर क्रय करेगा। इस विवाह को आसुर विवाह भी कहा गया। उच्च कुलों की क्रय की गयी कन्यटों की सन्तानों को पिता के कुल, गोत्र और सम्पत्ति में अधिकार होंगें किन्तु क्रय की गयी शूद्र कन्या को विवाहिता के अधिकार और उसकी सन्तानों को पिता के कुल, गोत्र व सम्पत्ति पर कोई अधिकार नहीं होगा।
7. प्रजापात्य विवाह। इस विवाह के अन्तर्ग पिता कन्या व वर को कहता है, कि दोनों नियमों का पालन कर गृहस्थी चलावें और सन्तानोत्पती करें।
8. पिषाच विवाह। इस विवाह के अन्तर्गत मूर्छित, विक्षिप्त, रूदन करत,े असहाय कन्या के साथ बलात्कार किया जाता है।
14. विवाह की विधियां।
1. अग्नि प्रदक्षिणा द्वारा
2. सप्तपदी लाजहोम द्वारा
3. शिलारोहण द्वारा
4. कन्यादान और
5. गोत्रों का बचाव।
15. विवाह की नियोग प्रथा समाप्त की गयी।
16. विधवा स्त्री ब्राह्मण की आज्ञा से देवर से सन्तान उत्पन्न कर सकेगी। देवर न हो तो सपिण्ड, सगोत्र, समान प्रवर अथवा सवर्ण पुरूष से अधिकतम दो सन्तान उत्पन्न कर सकेगी।
17. सन्तान उसकी होगी जो उत्पन्न करेगा।
18. विवाह नहीं होने पर भी सम्भोग हो जाने पर स्त्री का कन्या भाग दूषित नहीं माना जावेगा और उसका विवाह विधिवत होगा। कन्या के छः प्रकार होंगेंः-
1. अविवाहित व अक्षत (जिसका कौमार्य भंग नहीं हुआ)
2. अविवाहित किन्तु क्षत (जिसका कौमार्य भंग हो गया हो)
3. विवाहित किन्तु अक्षत
4. साधारण स्त्री (विवाह के बाद साधारण गृहिणी किन्तु सन्तान उत्पन्न नहीं हुई हो)
5. विशिष्ट स्त्री (सन्तान उत्पन्न कर चुकी स्त्री) और
6. मुक्त भोगिनी (जो सभी के लिये भोग हेतु उपलब्ध हो)।
19. एक ही गोत्र के अन्तर्गत विवाह नहीं होंगें।
20. एक ही प्रवर में विवाह हेतु माता और पिता की छः पीढ़ियों का अन्तर होना अनिवार्य होगा।
21. चाचा-ताऊ, बुआ-मौसी, बहन या मामा की पुत्री से विवाह किया जा सकेगा। किन्तु यह नियम उत्तर भारत में प्रचलित नहीं होंगें।
22. उच्च वर्ण का पुरूष अपने से नीचे के वर्ण की स्त्री से विवाह कर सकेगा। इस प्रकार ब्राहमणों को चारों वर्ण की स्त्रीयां प्राप्त हो सकेगी। इसी प्रकार क्षत्रिय को तीन वर्णों की, वैष्यों को दो और शूद्र को केवल एक ही वर्ण की स्त्रीयां प्राप्त हो सकेगी।
23. एक ही वर्ण के माता-पिता की सन्तान होने पर ही उस सन्तान को माता-पिता का वर्ण, कुल गोत्र और सम्पत्ति प्राप्त होगी।
24. पृथक-पृथक वर्ण के माता-पिता की सन्तान को वर्ण व्यवस्था से पृथक जाति माना जावेगा।
25. ब्राह्मण पिता द्वारा अपने से निम्न वर्ण की स्त्री से उत्पन्न सन्तान को ‘पारशव’ और शूद्र वर्ण की स्त्री से उत्पन्न सन्तान को ‘अम्बट’ की संज्ञा दी गयी।
26. क्षत्रिय वर्ण के पुरूष द्वारा अपने निम्न वर्ण की स्त्री से उत्पन्न सन्तान को ‘उग्र’ की संज्ञा दी गयी। किन्तु,
27. वैश्य पिता और शूद्रा माता से उत्पन्न सन्तान वैश्य ही होगी।
28. शूद्र पुरूष केवल शूद्र कन्या से ही विवाह कर सकेगा।
इसी प्रकार और भी अनेक नियम व व्यवस्थाएं आर्यों ने ब्राह्मणों के साथ मिल कर की जिससे उनके राग-रंग, स्त्री सुख, सत्ता, सम्पत्ति व अधिकारों पर आंच ना आये। रक्त की शुद्धता के नाम पर अपने वर्ण की सुन्दर तो दूर कुरूप स्त्रीयों को भी दूसरे निम्न वर्ण के पुरूष को भोग नहीं करने दिया गया। दूसरी ओर शूद्र वर्ण की सुन्दर स्त्रीयों को येन-केन-प्रकारेण अपने भोग विलास के निमित्त प्रयोग किया गया। अब विधि के नियम अनुसार स्त्री-पुरूष के संयोग से सन्तान तो उत्पन्न होनी ही थी। ब्राह्मण द्वारा अपने वर्ण से इतर वर्ण की भोग की गयी स्त्रीयों की सन्तान और इसी प्रकार क्षत्रिय वर्ण के पुरूष द्वारा भोग की गयी स्त्रीयों की सन्तान का अधिक होना निष्चित था। इन्हीं वर्णसंकर सन्तानों से बनी नित्य नयी जातियों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती गयी।
इस प्रकार कम से कम भारत भूमि पर जब भी किसी नयी जाति का उदय हुआ तो वह इन अन्तर्वणीय मिश्रणों में से ही किसी एक का परिणाम थी और शास्त्रों की इस विवेचना को समाज द्वारा भी अंगीकार कर लिया गया। जातियों के उदय होने की ये विवेचना कही-कहीं सामाजिक मूल्यों और मर्यादा उस काल में जाति विशेष की सामाजिक हैसीयत को भी निरूपित करती है। हालांकि कई जातियां अपने निर्माण व विकास के संबंध में उन कथाओं को अस्वीकार करती है जो उन्हें किसी हीन हो चुकी जाति से जोड़़ती है और उन कथाओं के स्थान पर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने वाले बहुत लम्बे कालखण्ड़़ से चले आ रहे, किसी घटनाक्रम को अपने विकासक्रम से संबद्ध कर प्रस्तुत करती है। इसके विपरीत हीन हो चुकी जाति अपनी सामाजिक मर्यादा व श्रेष्ठता को किसी कपाट अथवा अभिशाप के कारण हीन होना बताती है।
प्रस्तुत प्रसंग में हम कथित हीन जातियों के संबंध में अध्ययन को केन्द्रित करते हुए संक्षिप्त चर्चा करें तो साधारण बोलचाल में हीन जातियों के लिये ‘म्लेच्छ’ पद का प्रयोग किया गया है। वस्तुतः म्लेच्छ तो केवल एक जाति है जो क्षत्रिय पिता और शूद्र माता के संयोग से उत्पन्न हुई। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसारः-
‘‘क्षत्रवीर्येण शूद्रयामृतुदोषेण पापतः। बलवत्यो दुरंताश्च बभूवुर्म्लेच्छजातः।।
अविद्धकर्णाः क्रुराष्च निर्भया रणदुर्जयाः। शौचाचारविहीनष्च दुर्धर्षा धर्मवर्जिताः।।‘’
अर्थात क्षत्रिय पिता और शूद्र माता के संयोग से म्लेच्छ की उत्पत्ति उस समय हुई जब माता रजस्वला होने से अपवित्र थी और पिता के मन में पाप की भावना थी। इस संयोग से शक्तिशाली, दुरंत और पापाचारी म्लेच्छ जातियों का प्रादुर्भाव हुआ। ये जातियां क्रूर, निर्भय, पवित्रता व आचरण विहीन, दुर्धर्ष और धर्महीन हुई।
‘‘द्वितीयतः विश्वकर्मा च शूद्राया वीर्याधानं चकार ह।।
ततो बभूवः पुत्रास्ते नवैते शिल्पकारिणः।।
मालाकारः कर्मकारः शंखकारः कुविंदकः।।
कुंभकारः कांसकरः शडेते शिल्पिनां वराः।।
सूत्रधारश्चित्रकारः स्वर्णकारस्तथैव च।।
पतितास्ते ब्रह्मशापाद् अजात्या वर्णसंकराः।।‘‘
अर्थात् विश्वकर्मा ने शूद्र माता के गर्भ से नौ शिल्पिकार पुत्र क्रमशः माली, लुहार, शंखकार, कुविंद (बुनकर), कुम्हार, कंसेरा, बढ़ई, चित्रकार और सुनार उत्पन्न किये।
यद्यपि, प्रारम्भ में शूद्र वर्ण में समस्त अनार्यों के अपशिष्ट को शामिल किया गया, किन्तु बाद में चारों वर्णों में उनके समावेश ने उनके अस्तित्त्व को एक मापदण्ड दिया। उक्त चारों वर्णों के अतिरिक्त एक अनौपचारिक पांचवा समूह ‘अछूत वर्ग’ जिसे किसी वर्ण की संज्ञा नहीं दी गयी किन्तु इस वर्ण को अपेक्षाकृत एक अघोषित सामाजिक स्वीकृति का मार्ग अपनाया गया। यही कारण है, कि परम्परागत पुस्तकों में ‘अछूत’ पद को कहीं भी पारिभाषित नहीं किया गया है। तथापि, मेंसूर उच्च न्यायालय ने (देवराजा बनाम पद्मन्ना ए-आई-आर- 1958, 84) में उद्धृत किया है, कि ‘‘अछूत पद को इसके शाब्दिक और व्याकरणीय अर्थ में नहीं समझा जाना चाहिये वरन्, भारतीय इतिहास के विकास में प्रचलित व्यवहार के सन्दर्भ में समझा जाना चाहिये जो परम्परा के रूप में विकसित हुआ है। यह हिन्दू जाति व्यवस्था का एक उत्पाद है जिसके अनुसार हिन्दुओं के एक वर्ग को समाज के अन्य वर्गों द्वारा अछूत के रूप में व्यवहार किया गया।‘’
भारतीय संस्कृति के लिये विकास के सुदूर परिणामों में सामाजिक संगठन का स्थान सर्वोपरि है जिसे जाति व्यवस्था की संज्ञा दी गयी है। श्रीमद्भगवद्गीता में ‘‘चातुर्वर्ण्यम मया सृष्टं गुणकर्मविभागश‘ अर्थात् ‘‘मेरेे द्वारा गुणों और कर्मों के विभागपूर्वक वर्णों की रचना की गयी है‘‘, कहकर व्यक्ति के कर्म और गुणों के आधार पर मानवों का वर्गीकरण करने के बात कही है तो ऋग्वेद के एक स्रोत में प्राचीनतम यज्ञ का उल्लेख है जिसमें भगवान प्रजापति के शरीर से चार समूहों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्णो) के प्रकट होने को परिलक्षित किया गया है, जो भारतीय समाज में चार प्रमुख जातियों के रूप में स्थापित हुए।
दार्शनिक अर्थों में विशेषतः भारतीय दर्शन में ‘जाति’ वस्तुओं के एक समूह को वर्णित करती है, जिनमें जातीय चरित्रता समान है। यह पद संस्कृत भाषा की ‘जातक’ धातु से बना है जिसका अर्थ जन्म अथवा ‘अस्तित्व में लाया गया’ है और जन्म से निर्धारित होने वाले अस्तित्व के एक प्रकार को इंगित करता है। सामाजिक विज्ञान में ‘जाति’ पद का प्रयोग सार्वभौमिक रूप से हिन्दू समुदाय में एक जाति समूह को इंगित करता है। इस प्रकार प्रस्तुत विषय के सन्दर्भ में जाति से तात्पर्य हिन्दू समुदाय के एक वर्ग विषेष से है। यद्यपि परम्परागत हिन्दू धर्म शास्त्रों के विधिवेत्ता ‘जाति’ को ‘वर्ण’ की भांति व्यवहार करते है और जाति को चारों वर्णों और चारों वर्णों के उत्तराधिकारियों का मिश्रण बताते हैं, किन्तु ‘जाति’ तथा ‘वर्ण’ के मध्य स्पष्ट अन्तर किया जाना चाहिये। यह अन्तर यद्यपि बहुत ही क्षीण है, किन्तु वास्तविक है। ‘जाति’ जहां ऐसे परिवारों का समूह है जिनके मध्य परम्परागत रूप से विवाह संबन्ध होते हैं, वहीं ‘वर्ण’ से तात्पर्य सामाजिक वर्ग का अखिल भारतीय सार्वभौमिक आदर्श है। औपचारिक हिन्दू दृष्टिकोण ‘जाति’ पद को ‘वर्ण’ का विपथगामी मानकर उसे द्वितीय स्थान देता है। इसके अतिरिक्त, जाति व्यवस्था में कार्यों की अपेक्षा वंशानुगत सदस्यता को उभारा गया है।
भारत के विभिन्न हिस्सों में कुछ जाति समूहों ने वर्ण विशेष की सदस्यता का दावा करते हुए वर्ण व्यवस्था में मान्यता प्राप्त कर ली है। इनमें सबसे सफल और उदाहरणीय दावा राजपूतों का है, कि वे दूसरे वर्ण अर्थात् ‘क्षत्रिय‘ से संबद्ध है और अपने दावे को स्थापित करने के लियेे उन्होंने सूर्य और चन्द्र की प्राचीन वंश पंक्ति का एक नया ही सिद्धान्त प्रतिपादित कर लिया। इसी प्रकार अछूतों ने भी व्यवहार की जातिगत आदतों को अपनाकर अपनी दयनीय स्थिति से बचने के लिये सबसे निम्न वर्ण ‘शूद्र’ की प्रास्थिति पर अपना दावा कर दिया। जाति विचार पर भारतीय सुधारवादियों द्वारा प्रहार किया जाता रहा है। वे इसके पूर्णतया समाप्ति की बात नहीं करते किन्तु जातियों के मूल स्वरूप अर्थात् प्रशंसनीय स्तर तक कार्यरत वर्णों की पुनर्स्थापना द्वारा व्यवस्था के शुद्धिकरण की बारम्बार वकालत करते हैं।
वर्तमान में जाति से तात्पर्य वस्तुतः विशेष सामाजिक स्तर के लोगों का वह समूह है, जो सामान्यतः वंशक्रम, शादी तथा व्यवसाय के सन्दर्भ में परिभाषित किया जाता है। उल्लेखनीय है, कि यहां उपासना पद्धति पद का प्रयोग नहीं किया गया है। यही कारण है, कि एक ही उपासना पद्धति के अनुयायी होते हुए भी किसी समुदाय विषेष के सदस्य स्वयं को एक ही जाति का होना कहते हों, किन्तु उनके मध्य विवाह संबन्ध भी होते हों यह आवष्यक नहीं है। उदाहरणार्थ ब्राह्मण समुदाय में गोड़़, कान्यकुब्ज, सनाढ्य, बागड़ा, सारस्वत, डाकोत, जांगीड़, पुष्करणा आदि अलग-अलग शाखाओं के ब्राह्मण परिवारों में विवाह संबन्ध सामान्यतः अपवाद स्वरूप ही मिल पाएंगे इसी भांति वैष्य समुदाय में भी अलग-अलग जाति समूह/शाखाएं हैं, जिनमें अन्य बातें समान होने पर भी विवाह संबन्ध केवल अपने समूह में ही किये जाते हैं।
इस प्रकार भारत में जाति परम्परा की जड़ें अति प्राचीन है और प्रत्येक पुरातनपंथी व्यक्ति, नियमों, समस्त सामाजिक संव्यवहारों तथा व्यवसाय को नियन्त्रित करती है। प्रत्येक जाति के अपने रीति-रिवाज हैं जो अपने सदस्यों के व्यवसाय, खान-पान की आदतों तथा दूसरी जाति के सदस्यों के साथ उनके सामाजिक सम्पर्कों को प्रतिबंधित करती हैं। भारत में जाति व्यवस्था अपने अति विकसित रूप में है, किन्तु यही पद विश्व के दूसरे समुदायों में समान पदसोपान वाले समूहों के लिये प्रयोग किया गया। यह कह पाना कठिन है, कि भारतीय जाति व्यवस्था का प्रभाव मुस्लिम समुदाय पर पड़़ा अथवा मुस्लिम समुदाय में यह व्यवस्था पहले से विद्यमान थी। क्योंकि मुस्लिम समुदाय में भी पठानों के विवाह संबन्ध पठानों में, कुरैशियों के विवाह संबन्ध कुरैशियों में, नीलगरों के विवाह संबन्ध नीलगरों में और भिष्तियों के विवाह संबन्ध भिष्तियों में ही होते हैं।
भारतीय समाज के लिये जाति (ब्ंेज) षब्द का सर्वप्रथम उपयोग पुर्तगाली यात्रियों द्वारा 16वीं शताब्दि में किया गया, जो पुर्तगाल और स्पेन के ब्ंेजं शब्द से बना है और इसका अर्थ वंश या कुल, नस्ल या पंक्तिक्रम है। भारत की अधिकांश भाषाओं में जाति पद का प्रयोग वंष अथवा जातीय विशिष्टताओं को अपनाने वाले समूह के अर्थ में किया जाता है, जो वैवाहिक संस्था के दृष्टिकोण से किसी क्षेत्रीय जनसंख्या की सबसे छोटी सामाजिक ईकाई है। इस प्रकार भारत में लगभग 3000 से अधिक जातियां और लगभग 25000 से अधिक उपजातियां हैं, जिनमें से कुछ जातियों की सदस्य सख्या मात्र सैंकड़ों में तो कुछ की संख्या लाखों में है।
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अब एक नवीनतम जानकारी अनुसार मज़ेदार जाति समूह देखिये
वैवाहिक युगल निर्मित जाति कर्म स्त्रोत
वैष्य कन्या चांडाल पुरूष श्वपच कुत्ते का मांस ग्रहण करते हैं और कुत्ते ही इनका बल होते हैं। औ. सं. 12
ब्राह्मण कन्या शुद्र पुरूष
वैष्य कन्या पुल्कस पुरूष रजक / रंजक
क्षत्रीय कन्या शूद्र पुरूष औ. सं. 18
वैष्य कन्या रजक पुरूष नर्तक व गायक औ. सं. 19
वैष्य कन्या शूद्र पुरूष वैदेहिक बकरी भैंस व गो पालन, दूध दही, छाछ मक्खन व्यवसाय औ. सं. 20, 21
वैष्य कन्या शूद्र पुरूष चोरी से विवाह चक्री या तेली तेल निकालने बेचने या नमक का व्यवसायाय औ. सं. 23
शूद्र कन्या वैष्य पुरूष
सूचक / कटकार सूली देने का कार्य करते हैं औ. सं. 45
शूद्र कन्या वैष्य पुरूष चोरी से कटकार औ. सं. 46
शूद्र कन्या शूद्र पुरूष शूद्र द्विज वर्ण की सेवा में पाक कर्म औ. सं. 50 औ. सं. 50
शूद्र कन्या शूद्र पुरूष चोरी से काकवच घोडों को घास खिलाने वाला
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2 Responses

  1. यह वैदिक संस्कृति सभ्यता को नष्ट-भ्रष्ट करने का प्रयास है

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