मंदाकिनी पार्ट 09 / Mandakini part 09

आपने अब तक पढा कि मीना के घर में निकले सांपों को शेखर ने अपनी युक्ति से पकड कर टपकेश्वर महादेव मंदिर क्षेत्र में छोडा और सभी लोग अगले पिकनिक स्पॉट रॉबर्स केव पहुंचे जहां राघव ने गाडी पार्किंग में लगायी। अब आगे …
राॅबर्स केव से लगभग आधा किलोमीटर पहले ही स्थानीय लोगो ने घुटनों से नीचे बहते हुए पानी के बीच में रंग बिरंगी बडी छतरियां व कुर्सियां लगा कर चाय-नाष्ते की दुकानें लगा रखी थी जो आज संख्या में बहुत अधिक हो गयी है। रविवार होने के उपरांत भी स्थानीय लोगों सहित पर्यटकों की संख्या अधिक नहीं थी क्योंकि हम दोपहर बाद पहुंचे थे। पानी में रंगीन छतरियों के नीचे सजे हुए टेबल कुर्सी पर यहां वहां बैठे हुए लोग या तो गुफा में जाने वाले थे या गुफा दर्षन के बाद बाहर आ कर जलपान कर रहे थे।
गुफा में अंदर जाने से पहले राघव भैय्या ने अपनी पसंदीदा जगह पर डेरा जमाते हुए कहा … ‘‘देखो भाई हम तो ये गुफा बचपन से देखते आए हैं। अपनी गुफा में कोई रूचि नहीं है। हां, यहां बैठ कर इस दृष्य के सौंदर्य का दर्षन करते हुए अपनी पसंद की चीेजें खाने पीने से कभी मन नहीं भरता। तो अपने रामजी तो यहां बैठते हैं। वैसे तो गुफाएं ध्यान, तपस्या और समाधि के लिये होती है लेकिन ये गुफा चोर, डाकू, लुटेरों और चोरी-चोरी रोमांस करने वालों की है, बाकी जिनको पानी में भीगने की इच्छा हो वो गुफा में जाएं।’’
अब मना करने की बारी अंजली भाभी की थी। वे बडी रोमांटिक हो कर कविता करती हुई बोली … ‘‘ हे स्वामी, षादी के बाद आप इतनी बार यहां लाये हो कि गुफा का एक एक चोर रास्ता मुझे पहचानता है और अंजुली में झरनों का जल ले कर एक दूसरे पर फेंकते लोग लगता है जैसे मेरा नाम उछाल रहे हों। हे राघव, मैं तो आप के चरणचिन्हों की अनुगामिनी हूं। जहां आप के चरणचिन्ह नहीं जा रहे वहां मैं भला कैसे जा सकती हूं।’’
अंजली भी एक तरह से किनारा करते हुए बोली … ‘‘राघव भैय्या, गुफा को चोर, डाकू, लुटेरों और चोरी चोरी रोमांस करने वालों की शरण स्थली कह कर आपने कीडी नगर के प्रवेष द्वार पर कौषांबी के रामगढ का ताला लगा कर जहां न पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवि की उक्ति को झुठला दिया है। अब जहां अरूणिमा अर्थात रवि की रष्मियां नहीं पहुंच सकती वहां भला मीना जैसा साधारण मनुष्य कैसे पहुंच सकता है। अब तो कोई कवि ही रास्ता दिखाए।’’
निष्चय ही लक्ष्य और आक्षेप के निराकरण का उत्तरदायित्व शेखर पर आ गया था। शेखर ने बहुत ही शांत और वाणी में प्रवचन देते हुए कहा … ‘‘पूर्वजों के अनुभव आधारित परंपरागत अनेक नीति सूक्तियां हैं किंतु स्वयं की अनुभूति एक अलग ही प्रभाव रखती है। कुएं के जल में दिखने वाली परछाई का अर्थ यह नहीं कि कुंए में झांकने वाला भीगा हुआ भी है। अंजली का जल काजल और चंदन को समान रूप से प्रक्षालित करता है। हाथ उसके काले होते हैं जो कोयले की दलाली करे, देह की अंजनी में रह कर भी ज्ञान और विवेक की धूणी उसी प्रकार निरंजन ही रहती है जैसे मदिरा से भरी होने पर भी मीना की चेतना कीचड में कुमुद और कुमुदनी की तरह पवित्र रहती है। वहीं लू का एक थपेडा भी सहन नहीं कर सकने वाले हिमखंड सर्द रातों में भी मोम की तरह पिघल कर बिखर जाते हैं। अब जिसे अपनी देह की अंजनी में ज्ञान और विवेक की धूणी पर विष्वास हो वो हमारे साथ चले।’’
ये कह कर शेखर उठे तो राहुल ने बडी मासूमियत से कहा … ‘‘अपने तो इतना ही समझ आया कि हम शेखर अंकल के साथ चले, वैसे भी मुझे झरने में नहाना भी है। चलो अंकल, इन्हें यहा खाने पीने दो, अपन तो चलते हैं।’’
डाॅली भी राहुल की हां में हां मिलाते हुए उनके साथ चली गयी। उन तीनों के जाने के बाद थोडी देर चली हमारी परस्पर चर्चा का निष्कर्ष ये रहा कि एक अतीथि रूप में अकेले जाने को लेकर अंजली भाभी और राघव भैय्या ने मुझे और मीना को भी भेज दिया। रास्ते में मीना ने कहा कि मैं इस अवसर को हाथ से न जाने दूं और शेखर से स्पष्ट बात करूं। मैंने मीना को शेखर की ऊंची ऊंची आदर्षवादी बातों में अपने प्रयासों की असफलता बाबत बताया तो उसने आदर्षों की पगडंडियों के मायाजाल में न फंसते हुए लक्ष्य संधान का गुरूमंत्र देते प्रेम डगर के मुख्यमार्ग पर अग्रसर होने का आदेष दिया। आगे राॅबर्स केव जहां दो भागों में बंट जाती है, वहां डाॅली और राहुल झरने की तरफ जाते दिखे लेकिन शेखर उनके साथ नहीं दिखे। मीना को उन गुपचुप रास्तों के बारे में पता था जिनके कारण इस स्थान को गुच्चुपानी भी कहा जाता था। एक संकरे रास्ते में आगे जा कर एक चट्टान पर शेखर ध्यान अवस्था में बैठे थे। मीना वहां एक बार फिर मुझे हृदय की दुर्बलता को त्यागकर कठोरता से लक्ष्यभेदन का उपदेष दे कर वहां से चली गयी।
मैं बहुत देर तक साहस नहीं जुटा पायी और शेखर के उस रूप को निहारती रही। चट्टान के दोनों ओर बह रहे झरनों के कलकल निनाद में शेखर की ध्यानमुद्रा का आवरण ऐसा था जिससे मेरी कोमल भावनाओं के तीर टकरा टकरा कर गिर रहे थे। शेखर की बांह पर बंधी हुआ मेरी गहरी गुलाबी रंग की चुन्नी अब उनके कांधे पर थी और दूज के चंद्रमा का चेहरे पर पड रहा मद्धम प्रकाष एक अलोकिक दृष्य प्रकट कर रहा था।
मैं उस अलोकिकता में घुलती जा रही थी और समझ नहीं पा रही थी कि अपनी बात कहां से प्रारंभ करूं। तभी शेखर की दूर से आती आवाज़ सुनाई दी … ‘‘आओ मंदाकिनी, अपने शीष में संषयों के जितने सितारों की चकाचैंध भरी चमक लेकर घूम रही हो, उन्हें श्रद्धा के कंवलकुसुम बना कर इस शषिषेखर की झोली में डाल दो।’’
संषयों के सितारों की चकाचौंध में एक नयी संज्ञा की बिजली मेरे मस्तिष्क में कौंध कर शषि शषि पुकारने लगी और मेरे मुंह से केवल ये शब्द निकल पाया … ‘‘षषि शेखर?’’
शेखर ने अद्धमुंदी आंखों से ही कहा … ‘‘हां मंदाकिनी, शषि शेखर!! देखो ये निस्तब्ध और एकांत जीवन रूपी स्थान तुम्हारी ही कलकल के निनाद से गुंजायमान है। जैसे शेखर के शीष पर शांत शषि की कलाएं नित्य नयी रचना को प्रकाषित करती है किंतु रोम रोम में गूंज कर जीवन की शुचिता को निरंतर झंकृत करने वाला अदृष्य मंदाकिनी का नाद इन धारों के साथ बह कर दूर जा रहा है और पवित्र कर रहा है उन मुक्ति याचकों को जो जन्म और मृत्यु की गहराई व सतह के मध्य डुबकियां लगा रहे हैं।’’
मैं तो शेखर के रंग में रंग गयी थी और उस अलोकिक जगत में मेरे संषयों के सितारों की चमक एक झिलमिल प्रकाषपुंज बन कर मेरे अस्तित्व को प्रकाषित करने लगी थी लेकिन मीना के शब्दों की मदिरा ने एक झटके से मुझे चेतनाषून्यता से बाहर निकाला और मैंने न मालूम कैसे साहस और शक्ति जुटा कर एक ही सांस में कहा … ‘‘षेखर, मैं आपके अलोकिक जगत की मंदाकिनी नहीं वरन हाड मांस के शरीर से बनी एक जीती जागती स्त्री हूं। क्या शेखर नाम के पुरूष के जीवन में अरूणिमा नाम की स्त्री का कोई स्थान कोई आवष्यकता नहीं? क्या मेरा प्रेम, मेरा समर्पण एकतरफा है? क्या मैं आप को स्वीकार नहीं हूं? कल रात से सोचते सोचते मैं बहुत थक गयी हूं शेखर, मुझे सहारा दे दो, मुझे सहारा दे दो।’’
मैं अपने साहस पर आष्चर्यचकित थी लेकिन सारी शक्ति निचोड कर किये गये प्रष्न अब मेरे नथुनों में नहीं समा पा रही श्वासों में मुझ पर ही नाग बन कर फुफकार रहे थे और मेरा निस्तेज शरीर एक बार फिर शेखर के सामने लडखडा कर गिरने को हुआ तो शेखर ने दाहिने हाथ से मेरे बाएं कंधे तक घेरा बनाकर थाम लिया और चोटग्रस्त बाएं हाथ से मेरे सर को सहलाते थपथपाते हुए बार बार मेरा नाम ले कर बोले … ‘‘अरूणिमा, धैर्य रखो अरूणिमा!! चेतनाहीनता निष्पाप प्रेम की शत्रु है। मेरी दी हुई मंदाकिनी संज्ञा को लज्जित न करो। आओ थोडी देर विश्राम कर लो।’’
इतना कह कर शेखर ने मुझे उस षिला पर लिटाया और स्वयं अपने कांधे पर रखी गहरी गुलाबी चुन्नी को झरने के पानी में भिगोने गये। मैंने अपने माथे पर कुछ गीलापन अनुभव किया तो हाथ लगा कर देखा, शेखर के चोटग्रस्त हाथ से रक़्त की बूंदे मेरे माथे पर आ गयी थी। मैं जीवन भर की थाति बन चुके शेखर के उन प्यार भरे शब्द और स्पर्ष को याद कर रोमांचित हो रही थी कि शेखर ने गीली चुन्नी से कुछ बूंदे मेरे चेहरे पर झटकीं और अपनी जंघा पर मेरा सर रख कर मुझे थपथपाते हुए बोले … ‘‘अब कैसी हो मंदाकिनी?’’
मैंने झुंझलाते हुए कहा … ‘‘थक गयी हूं मैं मंदाकिनी सुन सुन कर। अरूणिमा कहो मुझे शेखर, बस अरूणिमा।’’
शेखर ने मेरी तरफ बहुत प्यार से देख कर हंसते हुए कहा … ‘‘मेरे लिये तो दोनों ही निर्दोष और पवित्र हैं। दोनों ही स्त्री है, अंतर केवल इतना है कि अरूणिमा सुबह सुबह की उषा है जो थोडी देर बाद तपते हुए सूरज की तरह जलने लगती है किंतु मंदाकिनी सदा सर्वदा एक जैसी रहती है। समय का उस पर कोई प्रभाव नहीं पडता। निर्णय तुम्हें करना है कि तुम अरूणिमा की तरह लुप्त हो कर तपती दुपहरी में बंजारन की तरह किसी वृक्ष के नीचे फिर सुबह होने के समय की प्रतीक्षा करोगी या मंदाकिनी की तरह समय के साथ और समय के पार कलकल निनाद करती शेखर के हृदय में गूंजती रहोगी?’’
मैं शेखर के एक एक शब्द में निहित अर्थ को समझने का प्रयास कर रही थी। शेखर ने कितनी दार्षनिकता से सुबह सुबह की अरूणिमा को तपते सूरज में परिवर्तित होने में गर्भित क्षणिक सुख के बाद विछोह में बंजारन की प्रतीक्षा कह कर अंतहीन क्षोभ का संकेत दे दिया था। मैं कुछ कह सकने में स्वयं को असमर्थ अनुभव कर रही थी फिर भी एक बार फिर साहस और शब्द जुटा कर बोली … ‘‘प्रतीक्षा तो स्त्री का भाग्य है किंतु पुरूष क्या प्रतीक्षा से ऊब कर मनोरंजन का कोई और सहारा नहीं ढूंढेगा?
शेखर ने मेरे अधरों पर अपनी तर्जनी अंगुली फिराते हुए कहा … ‘‘निष्चित रूप से पुरूष जब थका हुआ हो तो स्त्री का सहयोग उसमें नयी ऊर्जा भर देता है। ऊबाहट से उबरने के लिये उसे मनोरंजन का सहारा चाहिये और स्त्री से अच्छा मनोरंजन का अन्य कोई विकल्प नहीं है। दूसरे भी कारण हो सकते हैं जब पुरूष को स्त्री की इच्छा हो, यही सांसारिकता है। किंतु स्त्री और पुरूष के सभी समीकरणों का परिणाम आनंद ही तो है?’’
शेखर अब मेरे सीधे प्रष्न का सीधा उत्तर दे रहे थे लेकिन सीधे उत्तर में शेखर का सीधा प्रष्न मुझे असमंजस में डाल गया और मेरा मुंह से स्वीकारोक्ति केवल ‘हां’ निकली तो शेखर ने आगे कहा … ‘‘किंतु एक बात जो इन सब से ऊपर है वह यह है की आनंदित को किसी की भी आवष्यकता नहीं पड़ती। उस का स्वयं का आनंद ही पर्याप्त है, शर्त केवल यह कि वह आनंदित हो। यह और कि उस आनंद के क्षण केवल मित्रवृंद मे बंट सकते हैं क्योंकि आनंद तो केवल मित्रों में ही बांटा जा सकता है। प्रयास करने पर भी कोई अपना आनंद किसी अन्य क दे ही नहीं सकते और न ही कोई ले सकता है क्योंकि आनंद कोई व्यापार नहीं जिसका आदान-प्रदान हो सके। काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष, निंदा, चुगली, धन, संपति, सुख जो चाहो बांटों, लेने के लिए सब तैयार है। विवाह सहित अनेक सामाजिक संस्थाओं का निर्माण संभवतः इन सब बातों के आदान-प्रदान के लिए ही हुआ है किंतु पत्नि या पति भी एक दूसरे को आनंद नहीं दे सकते यदि उन में मित्रता नहीं हो। आनंद बांट कर आनंदित होना संसार में बहुत दुर्लभ भी है और कठिन भी। इस लिए संबंध में मित्रता को सब से ऊपर रखा गया है मित्रता को शुद्ध प्रेम अर्थात आनंद कहा गया है। सही मायने में मित्रता कोई संबंध ही नहीं है क्योंकि वहां प्रभुत्व की भावना नहीं होती। दूसरी बात ये कि आनंदित को किसी की जरुरत नहीं, जिस के पास आनंद है वह स्त्री तो क्या किसी भी वस्तु की इच्छा नहीं करेगा। यदि करे तो समझना उसे अभी आनंद मिला नहीं। ऐसा भी नहीं है की उसे स्त्रीयों से रूचि नहीं है, सत्य यह है कि स्त्री में उसे जो दिखाई देता है दुसरा कोई पुरूष स्त्री को वैसा देख ही नहीं सकता। स्त्री के आसपास आने जाने में उसे कोई अंतर नहीं पड़ता क्योंकि वह अपने आंतरिक आनंद में इतना निमग्न है कि स्त्री से मिलने वाला क्षणभंगुर आनंद उसके लिये तुच्छ है।
फिर जैसे मुझे आने वाले समय का भान करवाना और समझाना चाहते हों, मेरा नाम ले कर सीधे संबोधित करते हुए बोले … ‘‘ध्यान से सुनो अरूणिमा, पति-पत्नि का संबंध तो परिवारों की सहमति से समाज बना देगा किंतु इस संबंध का आनंद प्राप्त करने के लिये दोनों के मध्य मित्रता स्वयं विकसित करनी होगी। मित्र हो कर पति-पत्नि हों यह आवष्यक नहीं किंतु पति-पत्नि में मित्रता हो यह बहुत आवष्यक है अन्यथा जीवन मंदाकिनी के किनारों की तरह हजारों मील साथ चलकर गंगासागर के लक्ष्य को तो पा लेगा लेकिन संवेदनाओं के संवाद का आनंद अनुभूत नहीं हो सकेगा।’’
गुच्चुपानी की जलधारा में किसी पत्थर के गिरने की छपाक आवाज़ के संकेत को समझ कर मैं उठी और शेखर ने मीना का नाम लेते हुए पुकार कर कहा … ‘‘आ जाओ मीना, यहां ऐसा कुछ नहीं है जिससे तुम्हें लज्जा का भय हो।’’
आष्चर्य और रहस्य की एक पहेली बन चुके शेखर ने हमें चौंका दिया। उन्हें कैसे पता था कि वहां मीना ही है। मीना अवाक् थी, मैंने झरने के पानी से मुंह धोया और शेखर ने चुन्नी को अपने घाव पर बांधा और चुपचाप एक दूसरे का हाथ पकडे गुच्चुपानी के पत्थरों पर पांव जमा जमा कर रखते हुए बाहर आये और अपनी अपनी पसंद के चाय नाष्ते का आॅर्डर किया तब तक डाॅली और राहुल भी आ गये। हल्के फुलके हंसी ठहाकों के साथ खाने पीने के बाद घर के लिये रवाना हुए।
ड्राइविंग सीट पर राघव भैय्या अपनी धुन में कुछ कह रहे थे और राॅबर्स केव मार्ग पर लौटते हुए लोग अपने अपने समूह में अपने अपने तरह से आनंद ले रहे थे। मैं चेहरे पर शेखर के उस स्नेहिल स्पर्ष से आनंदित आनंद और मित्रता में संबंध की परिभाषा और माथे पर शेखर के रक्तचिन्ह में मेरे और शेखर के संबंध को खोज रही थी। तब मीना ने शेखर के रेबेन एविएटर में न दिखने वाली आंखों में तैर रहे दृष्यों को लक्षित कर के कहा … ‘‘तो कविराज, चोर लुटेरों की डाकुओं की गुफा में कुछ लुटा आये या किसी योगी सन्यासी से भेंट हुई? कुछ तो राॅबर्स केव को भी अपनी कविता में यादगार बनाएं।
अब राघव भैय्या ने धर्म, दर्षन और नीति विषयों को प्रतिबंधित करते हुए कहा … ‘‘देखो भाई, ये धर्म-कर्म की बातें मामीजी, रष्मि भाभी और अंजली की सभा में करना। यहां तो कुछ ऐसा गीत सुनाओ कि रास्ता भी कटे और उसकी कल्पनाओं में समय का पता भी न चले।’’
सभी ने समवेद स्वर से कहा तो शेखर ने गुनगुनाना शुरू किया।
मैं ये कर ना सकूंगा, मैं ये कह ना सका….
तेरी अलकों को सहलाउं
तेरी पलकों पे सपने सजाउं
तुझे मीठे गीत सुनाउं
तुझे मेरे साये में सुलाउं
मैं ये कर ना सकूंगा, मैं ये कह ना सका….
तेरे आंचल को छू लूं
तेरे आंसुओं को पी लूं
दूर तक तेरे साथ चलूं
तेरे हाथों में धूप मलूं
मैं ये कर ना सकूंगा, मैं ये कह ना सका….
तुझे ले लूं मेरी पनाहों में
दीया बन के जलूं तेरी राहों में
बसा लूं तुझे निगाहों में
छिपा लूं तुझे मैं बाहों में
मैं ये कर ना सकूंगा, मैं ये कह ना सका….
तेरे बालों में फूल महकाउं
अंग अंग कस्तूरी लगाउं
चन्दा की तुझे नथ पहनाउं
तारों की औढनी उढाउं
मैं ये कर ना सकूंगा, मैं ये कह ना सका….
तेरे रूप लावण्य का गान करूं।
तेरी श्रंगार सुधा का पान करूं।
यौवन सरिता में नित स्नान करूं।
जोगी बनकर तेरा ही ध्यान करूं।
मैं ये कर ना सकूंगा, मैं ये कह ना सका….
तेरे कांधों पे कभी बैंय्या धरूं।
तेरे हवाले ये जीवन नैया करूं।
तेरी सजनी बनूं तुझे सैंया करूं।
तेरे इषारों पे ता-ता थैया करूं।
मैं ये कर ना सकूंगा, मैं ये कह ना सका….
कोई गीत लिखूं तेरे होठों पर।
कोई ग़ज़ल कहूं तेरी आंखों पर।
कभी सर झुकाउं तेरे शानों पर।
करूं हवाले सांस सांस तूफ़ानों पर।
मैं ये कर ना सकूंगा, मैं ये कह ना सका….
चान्द छिपाया करूं तेरे घूंघट में।
तारे लुटाया करूं तेरी सुहबत मंे।
जोगी बन जाउं तेरी मुहब्बत में।
मैं अपना रब पा लूं तेरी सूरत में।
मैं ये कर ना सकूंगा, मैं ये कह ना सका….
शेखर के इस गीत में सब अपने अपने तरीके से खोए हुए थे। कब घर आ गये, पता ही नहीं चला। माधव भाई साहब को कल सुबह मसूरी में ड्यूटी ज्वाइन करनी थी सो वे घर आये हुए थे। चाय पी कर शेखर और राघव भैय्या भी माधव भाई साहब के साथ चले गये। मीना ने अपनी साईकिल उठाई और राहुल व डाॅली को मैं अपनी हीरो मैजेस्टिक मोपेड पर ले कर रवाना हुई।
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