मंदाकिनी पार्ट 17 / Mandakini part 17

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आज तो देहरादून में अलग-अलग समितियों द्वारा अनेक स्थानों पर रावण दहन का आयोजन किया जाता है लेकिन उन दिनों परेड ग्राउंड और प्रेम नगर में ही रावण दहन की परंपरा भारत विभाजन के बाद 1948 में पाकिस्तान से आये विस्थापितों की बन्नु बिरादरी द्वारा शुरू की गयी थी। बन्नु बिरादरी द्वारा उस साल विजयादशमी के दौरान हर घर में रावण बनाए गए, जिसके बाद विजयाशमी के रोज प्रेमनगर दशहरा ग्राउंड में पहला रावण दहन हुआ। इस रावण दहन के बाद ये परंपरा यूं ही चली आ रही है। उससे पहले प्रेम नगर में देहरादून के जौनसार अंचल के उत्पाल्टा और कुरोली गांव से प्रेम नगर में आ कर बसे लोगों द्वारा चार सौ वर्षों से चले आ रहे पाइंता पर्व के नाम से मनाया जाता था। जिस में पारंपरिक रूप से दोनों गांव के लोग आप से गागली (अरबी) के डंडों से युद्ध करते हैं। शहर के दूसरे छोर पर होने पर भी पाइंता पर्व में इस पारंपरिक युद्ध को देखने प्रेम नगर के दशहरा ग्राउंड में पंडितवाड़ी, मेहूंवाला, शुक्लापुर, नत्थनपुर, श्यामपुर सहित आसपास के क्षेत्रों से लोग भारी संख्या में पहुंचते हैं।
गागली युद्ध की पृष्ठभूमि में चार सौ वर्ष पूर्व की जौनसार के पर्वतीय अंचलों में कालसी के उत्पाल्टा गांव की बैराण और पथान परिवार की रानी और मुन्नी नाम की दो बहनों जैसी सहेलियों की कहानी है। गांव में पानी का स्त्रोत नहीं होने से दोनों सहेलियां गांव से कुछ दूर स्थित क्याणी नामक स्थान पर कुएं में पानी भरने गई थीं, पांव फिसलने से रानी अचानक कुएं में गिर गई। मुन्नी ने घर पहुंचकर रानी के कुएं में गिरने की बात बताई तो रानी के परिवार वालों ने मुन्नी पर ही रानी को कुएं में धक्का देने का आरोप लगा दिया, जिस से क्षुब्ध हो कर मुन्नी ने भी कुएं में छलांग लगा दी। इसके बाद गांव में अजीब-अजीब घटनाएं होने लगीं। ग्रामीणों ने गांव में हो रहे हादसों को लेकर महासू देवता के ओझा के पास जा कर पूछा तो ओझा ने गांव पर रानी-मुन्नी का श्राप होना बताया। जिससे बचने के लिए दोनों बहनों की घासफूस से निर्मित पुतलियों को दशहरे के दिन कुएं में विसर्जित करने की बात कही। इसी घटना को याद कर पाइंता (दषहरा) से दो दिन पहले मुन्नी और रानी की घास से बनी प्रतीक पुतलियों की पूजा होती है। पाइंता के दिन ये पुतलियां कुएं में विसर्जित की जाती हैं। कलंक से बचने के लिए उत्पाल्टा और कुरोली के ग्रामीणों ने पश्चाताप स्वरूप पाइंता पर्व पर गागली युद्ध का आयोजन किया और तब से उत्पाल्टा गांव में पाइंता पर्व मनाने की परंपरा शुरू हो गई। तब से वे लोग दशहरे के दिन पश्चाताप स्वरूप गागली युद्ध करते हैैं। ग्रामीणों का कहना है कि जब तक गांव में दशहरे के दिन दो कन्याओं का जन्म नहीं हो जाता, तब तक यह परंपरा जारी रहेगी जिससे कि गांव को किसी अनहोनी से बचाया जा सके। इस गागली युद्ध को लेकर दोनों गांवों के ग्रामीणों में विशेष उत्साह रहता है। युद्ध के बाद दोनों गांवों के लोग ढोल-नगाड़ों और रणसिंघे की थाप पर नाचते-गाते हैं। जिनमें लोक नृत्य ‘बारदा नाटी’ और ‘हारूल’ है। पाइंता पर्व पर जौनसारी लोग थलका या लोहिया पहनते हैं, जो एक लम्बा कोट होता है। नृत्य करने वाले लड़के और लड़कियाँ रंगीन पौशाक पहनती हैं।
प्रेम नगर के दषहरा मैदान में दोनों परंपराओं का सामंजस्य इस तरह रहता है कि पहले रानी और मुन्नी की पुतलियों को कुएं में विसर्जित करते हैं गागली युद्ध के बाद रावण दहन के साथ ही बारदा नाटी और हारूल नृत्य शुरू हो जाता है जो देर रात तक चलता है। अपनी मोपेड एक कोचिंग सेंटर के अहाते में खडी करने के बाद मैं और अंजली भाभी प्रेम नगर दषहरा मैदान पहुंचे तो रानी और मुन्नी की पुतलियों के विसर्जन पूर्व की पूजा चल रही थी। सुहागिन स्त्रीयां अपने सुहाग और संतान के मंगल व कुंवारियां मनवांछित वर की कामना करती हुए स्थानीय भाषा में मंगल गीत गा रही थीं। अंजली भाभी ने भी अपने गर्भस्थ षिषु और राघव भैय्या के लिये मंगल मनोकामना करते हुए मुझे भी अपने मनोरथ के लिये प्रार्थना करने के लिये कहा। मैं मन ही मन बहुत कुछ सोच कर चुप रह गयी।
गागली युद्ध के अंतिम चरण के साथ ही रावण दहन हुआ और ग्रामीणों के अलग-अलग समूह बारदा नाटी और हारूल नृत्य करने लगे। गत तीन दिनों में शेखर का सानिध्य मेरे मन मस्तिष्क पर इतना हावी हो गया था कि मेरी चेतनाषून्य आंखें उन नृत्य कर रहे प्रत्येक युवा में शेखर की छवि देख रही थी और कानों में मन भरमेगे मेरू सुधबुध ख्वेगे गीत गूंज रहा था। अंजली भाभी की आवाज़ से मेरी तन्द्रा टूटी तो दषहरा मेला बिखर चुका था और गहराती रात में आषा तारिकाओं के साथ विष्वास के शुक्लपक्ष की एकादषी का चांद आसमान में उभर आया था। हम लोग कोचिंग सेंटर में अपनी मोपेड़ लेने पहुंचे तो मेरी मोपेड़ गिरी हुई थी सारा पेट्रोल बिखरा हुआ था। हम परेषान थे कि घर कैसे पहुंचेंगे चौकीदार से पूछने पर उसने बताया कि आस-पास में कोई पेट्रोल पंप नहीं था। हम चौकीदार से बात कर ही रहे थे कि एक मारूती 800 के हॉर्न की आवाज़ सुनकर चौकीदार भाग कर गया और कोचिंग सेंटर का बडा गेट खोला।
गाडी से उतरने वाले युवक ने हमारे बारे में पूछा और चौकीदार से सारी बात जान कर हमारे पास आया और बोला … ‘‘मैं इस कोचिंग सेंटर का संचालक हूं और यही मेरा आवास भी है। मेरा नाम भागीरथ है। यहां आस-पास कोई पेट्रोल पंप नहीं है लेकिन आप लोगों को जाना कहां है?’’
अंजली भाभी ने हमारा पता और बाबूजी का नाम बताया तो उसने आंखें सिकोड़ कर कुछ पहचानते हुए कहा … ‘‘ओह, अच्छा अच्छा!! लेकिन वो तो यहां से आठ-दस किलोमीटर दूर है और आज मेले की वजह से कोई साधन भी नहीं मिल पाएगा। अच्छा, एक मिनट ठहरो! मैं अभी आता हूं।’’
इतना कह कर वह अपनी गाडी के पास गया और गाडी में बैठी एक युवती से कुछ बात की। थोड़ी ही देर में वह युवती बाहर आई तो भागीरथ ने हमें भी वहीं बुला लिया और बोला … ‘‘ये मेरी बहन श्यामा है, ऋषिकेष में रहती है। यदि आप लोग चाहें तो हम आप को आप के घर छोड़ आएंगे। शर्त ये है कि औपचारिकता के लिये भी जलपान के लिये नहीं कहेंगे। हां, आप की मोपेड़ कल आप के यहां पहुंच जाएगी।’’
हमारे पास कोई विकल्प नहीं था। रास्ते में पारीवारिक परिचय की ओट में श्यामा के अधिकांष प्रष्न मेरे बारे में थे। गाडी में लगे म्यूज़िक सिस्टम पर फौजी भाईयों की पसंद का कार्यक्रम जयमाला में फ़िल्म आपकी कसम का ‘जिं़दगी के सफ़र में गुज़र जाते हैं जो मक़ाम’ गाने की फ़रमाइष करने वाले श्रोताओं के नामों में बाबूजी और उनके साथियों का नाम आने के साथ ही मेरी समस्त विचारधारा को विराम मिला और मैं बोली … ‘‘बाबूजी को ये गीत बहुत पसंद है।’’
गीत समाप्त होते-होते हम अपने घर के दरवाज़े पर पहुंचे और अंजली भाभी ने उन्हें अंदर आने के लिये कहा तो भागीरथ ने कहा … ‘‘आप शर्त भूल रही हैं लेकिन ये वचन रहा कि जल्दी ही आएंगे।’’
भागीरथ की बात पर श्यामा ने मेरा हाथ पकड़ कर हंसते हुए कहा … ‘‘आएंगे और आप को भी हमारे घर ले चलेंगे?’’
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खाना खाते हुए मां को सारी बात बताई तो मां ने संतोष की सांस ली। मैंने गाड़ी में बाबूजी के पसंद के गाना सुनने की बात बताई तो मां ने अपनी स्मृतियों में खोते हुए कहा … ‘‘तुम्हारे बाबूजी अपने बचपन की किसी मित्र की स्मृति में आज भी ये गीत गाते हैं।’’
मैं तो मां से इतनी मित्रवत नहीं थी लेकिन अंजली भाभी ने अवसर पाते ही मेरे बारे में बात करने की भूमिका बनाते हुए मां से मित्रता बढाने के लिये पूछा … ‘‘बुआजी, क्या बाबूजी आज भी अपनी पहली प्रीत को नहीं भूल पाए?’’
मां ने समझाते हुए कहा … ‘‘प्रेम का रिष्ता बहुत विलक्षण होता है अंजली! प्रेम करने वाले दोनों प्रेमी एक दूसरे के देवता और पुजारी होते हैं और दोनों की मनोकामना केवल और केवल एक दूसरे की प्रसन्नता होता है।’’
अंजली भाभी ने अपने प्रयास को आगे बढाते हुए कहा … ‘‘और पूजा का फल?
मां ने हंसते हुए कहा … ‘‘फल व मनोकामना और पूजा व कर्म में बहुत सूक्ष्म किंतु वास्तविक अंतर होता है। फल प्राप्ती के लिये किया गया कर्म और पूजा, कर्म और पूजा नहीं बल्की व्यवसाय है। जो कर्म को पूजा समझते हैं वो फल की कामना नहीं करते और जो पूजा को अपना कर्म समझते हैं वो केवल अपने देवता की प्रसन्नता की मनोकामना करते हैं।’’
फल व मनोकामना और कर्म व पूजा का इतना सूक्ष्म विवेचन सुन कर अंजली भाभी की ज्ञान जिज्ञासा में आ गये मनोवैज्ञानिक संषय ने पूछा … ‘‘व्यवसाय?’’
मां ने थोड़ा विस्तार से बताया … ‘‘हां अंजली, व्यवसाय! संतान के लिये नौकरी, विवाह, व्यवसाय में सफलता आदि के फल की मनोकामना से पूजा के नाम पर किये गये धार्मिक पूजा अनुष्ठान में अर्पित किये गये फल, फूल, नैवेद्य उस देवता को दिया गया प्रतिफल ही तो है।’’
अंजली भाभी ने अब अपने मनोविज्ञान के तरकष से अंतिम तीर छोड़ते हुए सीधा प्रष्न किया … ‘‘आप ने बाबूजी को पाने के लिये क्या किया? पूजा या ….!’’
मां ने एक सिद्ध दार्षनिक की तरह गम्भीर हो कर कहा … ‘‘इस व्यक्तिगत प्रष्न का उत्तर एक ध्रुव सत्य है प्रारब्ध, और इस प्रारब्ध का ध्रुव सत्य यह है कि इसे आज तक कोई योगी-यति भी नहीं जान पाया। क्या, कब, कैसे, कहां और कौन जैसे प्रष्नों के उत्तर तो किसी न किसी आधार से मिल जाएंगे लेकिन क्यों एक ऐसा प्रष्न है जो एक सीमा रेखा पर जा कर अनुत्तरित रह जाता है। तुम्हारी मोपड़ कैसे गिरी, किस ने गिराई इन प्रष्नों का उत्तर तो है लेकिन तुम परेड़ ग्राउंड वाले दषहरे मेले की अपेक्षा प्रेम नगर की क्यों गयी और वहां भागीरथ ही तुम्हारी मदद के लिये क्यों मिला और वो क्यों तुम्हें यहां तक छोडने आ गये? इन प्रष्नों का उत्तर प्रारब्ध से आवृत क्यों नामक प्रष्न ही तो है।’’
दो ज्ञानियों की ज्ञान चर्चा चलती रही और मैं खाने की टेबल से बर्तन उठा कर रसोई व्यवस्थित कर अपने कमरे में आ कर दूसरे दिन स्कूल जाने के लिये कपड़े तैयार किये और सोने की तैयारी करने लगी। बाबूजी का पसंदीदा गीत ‘जिं़दगी के सफ़र में गुज़र जाते हैं जो मुक़ाम’ मेरे कानों में गूंजते हुए मुझे बाबूजी की याद दिला रहा था।
तब अंजली भाभी कमरे में आई और मुझे चादर ओढ़ा कर ख़ुद भी बिस्तर में घुसते हुए बहुत अपनत्वपूर्ण व्यंग से बोली … ‘‘क्या बात है आज हमारी मंदाकिनी दिन में भी ख़ूब सोई है और अब भी इतनी जल्दी …।’’
मैंने अंजली भाभी को टालते हुए कहा … ‘‘कल स्कूल जाना है, मोपेड़ भी नहीं है साईकिल से जाना होगा।’’
अंजली भाभी ने मेरी तरफ करवट लेते हुए कहा … ‘‘पाइंता देवी रानी और मुन्नी से प्रार्थना करो कि भागीरथ कल मोपेड़ देने आ जाए।’’
मैंने सीधे लेटी हुई छत की तरफ देखते हुए कहा … ‘‘जब से शेखर मिले हैं, तब से कभी सहस्त्रधारा महादेव, कभी सिद्धेष्वर महादेव, कभी टपकेष्वर, कभी डाट काली माता और मां दुर्गा से मैं प्रार्थना ही तो करती आ रही हूं। उनके समक्ष देवी रूप में स्थापित कर दी गयी स्थानीय प्रभाव वाली रानी और मुन्नी से क्या प्रार्थना करनी शेष रह जाती है।’’
अंजली भाभी तो मुझ से बड़ी ही नहीं बल्की अनुभव में बहुत आगे थी। मुझे अपनी तरफ करवट लिवा कर मेरे माथे पर हाथ फिराते हुए बोली … ‘‘अच्छा एक बात बताओ, हम घर का कोई भी सामान छोटी दुकानों या स्टोर से ही क्यों लाते हैं? सीधे फैक्टीª, कंपनी या किसान से क्यों नहीं?
मैं भाभी के विषयांतर का कारण तो नहीं समझ पाई लेकिन उत्तर दिया … ‘‘क्योंकि छोटी दुकान वाला हमारी पहंुच में होता है, छोटी ज़रूरतों और कम मात्रा का सामान वितरण करने के लिये फैक्ट्री या कंपनी अपने एजेंट, अभिकर्ता या इसी तरह के छोटे व्यवसाईयों को नियुक्त करती है।’’
अंजली भाभी पुनः मूल विषय पर आ कर बोली … ‘‘अब आया तुम्हें समझ में? सागर से उठने वाला जल भी बादलों की यातायात व्यवस्था से हमारे स्थानीय नदी, तालाब, पोखर के माध्यम से हमारी पहुंच में आता है। सभी बडे देवता ईष्वरीय कृपा के वितरक और ये स्थानीय देवता भी छोटे अभिकर्ता हैं।’’
शेखर के सानिध्य में मैं भी कुछ तो तार्किक हो गयी थी। मैंने कहा … ‘‘तो क्या रिष्ते व संबंध भी कोई तत्वगत वस्तु है जिसका निर्माण और उत्पादन इन वितरकों और अभिकर्ताओं के माध्यम से प्राप्त होता है? फिर तो मां, बाबूजी और आपने भी किसी और को पाने की प्रार्थना की होगी लेकिन मिला वो ही जो आप के प्रारब्ध में संचित था। इसलिये मैंने प्रार्थना करना छोड़ दिया क्योंकि जो मेरे प्रारब्ध में संचित है वो मुझे मिल जाएगा। हां, चाहत, आकांक्षा और कामना मन के विषय होने से मेरे वष में नहीं है तो मेरा मन शेखर की चाहत में उन्हें पाने की आकांक्षा और कामना करता रहेगा।’’
अंजली भाभी निरूत्तर हो गयी थी और हम अपने-अपने विचारों में खो कर सो गये।
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दशहरे की छुट्टियों के बाद उस दिन बुद्धवार को साईकिल से स्कूल के लिये रवाना हुई तो नागेन्द्र कॉलॉनी के मोड़ पर मीना मेरी प्रतीक्षा करती हुई क्योंकि उसकी साईकिल पंक्चर हो गई थी। रास्ते में बातचीत में कल रात घटित प्रेम नगर के पाइंता पर्व, मोपेड़ से पेट्रोल गिर जाना, भागीरथ उसकी बहन श्यामा से ले कर मां और अंजली भाभी के साथ हुई प्रारब्ध की बातें करते हुए हम स्कूल पहूंचे। मैंने और मीना ने हमारी क्लास के विद्यार्थियों से दषहरा अवकाष गृहकार्य की नोटबुक्स ले कर उन्हें कक्षा नायकों (क्लास मॉनिटर्स) के नेतृत्व में राष्ट्रीय सेवा योजना के अपने कार्य दिवसों के लक्ष्य को पूर्ण करने के लिये स्कूल की साफ सफाई और पर्यावरण संरक्षण के लिये नियोजित किया और अपने केबिन में उनके गृहकार्य का मूल्यांकन कर रही थी कि चपरासी ने आ कर प्रिसिंपल मैडम के द्वारा हम दोनों को तुरंत बुलाए जाने का अप्रत्याषित संदेष दिया। मीना ने मेरी तरफ प्रष्न भरी दृष्टि से देखा तो मैं कुछ कह नहीं पाई और अनेक अपने मस्तिष्क में अनेक प्रष्न लिये मैं प्रिसिंपल के कक्ष में पहुंची तो वहां भागीरथ और श्यामा को देख कर कुछ ठिठकी और जल्दी ही समझ गयी कि वो मेरी मोपेड़ देने आये हैं। मुझे ध्यान आया कि कल प्रेम नगर से लौटते समय गाड़ी में अंजली भाभी ने बातचीत में बताया मेरे बारे में बताया होगा।
चाय पीते-पीते ही औपचारिक परिचय व बातों में प्रिसिंपल मेड़म ने मुझे भागीरथ व श्यामा को स्कूल परिसर दिखाने के लिये मीना को साथ ले लेने के लिये कहा क्योंकि मुझे अभी केवल एक माह ही हुआ था और मीना स्कूल परिसर से भलीभांति परिचित थी।
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मन तो नहीं था लेकिन अतीथि लोकाचार की औपचारिकता से मैंने श्यामा से बात शुरू करते हुए कहा … ‘‘कल तो बस संयोग और सौभाग्य ही रहा कि आप लोग मिल गये वरना पता नहीं क्या होता?’’
श्यामा ने अपनत्व जताते हुए कहा … ‘‘अरे ऐसा कुछ नहीं है अरूणिमा, कभी-कभी आकस्मिकताओं का परिणाम बहुत चौंकाने वाला होता है। प्रगाढ़ मित्रता भी किसी पड़ाव पर बहुत पीछे छूट जाती है और कभी एक क्षण का परिचय भी संबंधों में परिणित हो जाता है। ये तो ईष्वर ही बेहतर जानता हैं कि वो किसे, कब, कहां, कैसे और क्यों मिलाता है।’’
मैंने यूं ही बात को निरंतर रखते हुए कहा … ‘‘यानी आप भी प्रारब्ध और भाग्य पर विष्वास करती हैं?’’
श्यामा जैसे इस अवसर की प्रतीक्षा कर रही थी, वह भागीरथ को बीच में लाते हुए बोली … ‘‘हां, लेकिन ये भागीरथ बिल्कुल विपरीत मार्गी है। अब देखो हम बात कर रहे हैं और ये तुम्हारे स्कूल के पौधे और फूल-पत्तियों को देख रहा है।’’
भागीरथ ने प्रतिकार करते हुए कहा … ‘‘विपरीत मार्गी नहीं श्यामा, सत्य मार्गी कहो सत्य मार्गी, यथार्थवादी और व्यासवहारिक!! अब इन पेड़-पौधों और फूल-पत्तियों को ही देखो। बच्चे पुरानी सूखी व पीली पत्तियों, मुरझा चुके फूलों और सूखी टहनियों को निर्लिप्त भाव से हटा रहे हैं और शाख के गर्भ में पल रही पत्तियों व कलियों की उन्हें चिंता नहीं है। यानी जो बीत चुका है उसका दुख नहीं और भविष्य की चिंता नहीं। केवल और केवल वर्तमान को सहेज रहे हैं।’’
मैंने बहुत ही सहजता से पूछा … ‘‘लेकिन क्या इनके वर्तमान के मानस पटल पर बीते हुए कल की स्मृति और आने वाले कल की कल्पना की धुंधली रेखाएं नहीं हैं? कल जब इनकी इस स्कूल से विदाई हो जाएगी तब वर्तमान सहेजने के इन दिनों को क्या ये भूल पाएंगे?’’
कल से अब तक मेरा और भागीरथ का ये पहला सीधा संवाद था और भागीरथ को तुरंत कोई उत्तर नहीं सूझ रहा था। भागीरथ के मौन से मेरा उत्साह बढ़ गया और मेरे अंदर कहीं बैठे हुए शेखर के शब्द ध्वनि बन कर निकले … ‘‘यथार्थवादी जिस वर्तमान में जीते हैं उस वर्तमान के यथार्थ का तो अस्तित्व ही नहीं है। समय की लघुतम ईकाई के अज्ञात अंषमात्र के साथ ही वर्तमान व्यतीत हो कर अतीत बन जाता है तो यह क्यों न मान लिया जाए कि अतीत के दुख, वर्तमान के सुख और भविष्य की चिंता ही समय की अमूल्य धरोहर प्रारब्ध स्वरूप अपनी निष्पक्ष, निर्भीक स्वतंत्र रिक्तता में संचित होती है?’’
भागीरथ और श्यामा अवाक् थे और मीना मेरे तार्किक प्रत्युत्तर से अधिक मेरे साहस से उत्साहित हो कर बोली … ‘‘कहने को तो हमारी अरूणिमा केनवास पर काल्पनिक रेखाओं से चित्र उकेरती और उन में रंग भरती है लेकिन उसके ज्ञान के षिखर से कलकल बहती मंदाकिनी में स्वयं सदाषिव शेखर ध्यानस्थ हैं। अब यदि दो सत्यमार्गी और यथार्थवादी सहमत हों तो ज्ञान चर्चा और भूख में कुछ समन्वय स्थापित कर लिया जाए क्योंकि स्कूल की कैंन्टीन से आ रही गहत की दाल के परांठों की सुगंध से भूख और प्रतीक्षा समझौता नहीं कर रही।’’
मीना की बात पर हम चारों हंस पडे। भागीरथ और श्यामा आवष्यक काम होने के कारण रूके नहीं। उनके जाने के बाद मैं और मीना कुछ देर भागीरथ और श्यामा की बातें करते रहे और फिर दिन सामान्य रहा। शांम को मीना ने मेरी साईकिल संभाली और मैं मोपेड़ से घर रवाना हुए। मीना को मैंने सिद्धेष्वर महादेव मंदिर से पहले नव विकसित हो रही नागेन्द्र कॉलॉनी के मोड पर छोड़ा और वापसी में सिद्धेष्वर महादेव मंदिर में उठते हुए सफेद धुआं का गुबार देखा तो मेरी मोपेड एक अदृष्य बंधन में बंधी हुई यंत्रवत उस ओर जाने लगी। मन के किसी कोने से विद्रोह ने मेरे मस्तिष्क में संचित स्मृति को पुकारा और झिंझोड़ कर कहा कि यह धुआं मायावी है। मैंने बहुत चाहा कि मैं वहां ना जाऊं लेकिन जैसे हवा का हल्का से स्पंदन भी धुआं को अपने प्रवाह में ले लेता है, न मालूम मैं कब उस धूणी के सामने जा पहुंची जहां वही मायावी योगी आंखें बंद किये बैठे थे। धूणी से उठ रहे धुआं में लिपटे हुए योगी के शरीर से निकल रही आभा रष्मियों से चौंधियाई मेरी आंखें उस अक्स को स्पष्ट देख सकने में असमर्थ थी।
लेकिन आज अपनी सारी शक्ति बटोर कर मैंने अपनी चेतना को उस मायावृत्त में नहीं जाने दिया और पूछा … ‘‘आप कौन हैं? और ये क्या माया है?’’
शांम को किसी उपवन में चारों ओर से आ रहे पंछियों के कलरव की तरह उस योगी की वाणी की दिषा का मैं अनुमान नहीं लगा सकी लेकिन उस वाणी में धुला माधुर्य मैं आत्मसात कर रही थी … ‘‘माया द्विअर्थी शब्द है मंदाकिनी! एक अर्थ में जो है किंतु नहीं है वह माया है और दूसरे अर्थ में जो नहीं है किंतु है वह माया है। तुम किस माया को जानना चाहती हो?’’
मैं पूरे आत्मविष्वास के साथ वाद विवाद के लिये तैयार थी। मैंने पूरी आक्रामकता के साथ कहा … ‘‘अधूरे ज्ञान से किस का क्या प्रयोजन सिद्ध हो सका है। क्या अपूर्णता सफलता के किसी संतोष षिखर का कारक हो सकती है?’’
योगी ने कोई बचाव नहीं करते हुए निरपेक्ष भाव से कहा … ‘‘ प्रष्न यह नहीं है कि अपूर्णता किसी सफलता के संतोष षिखर का कारक हो सकती है अथवा नहीं? पूर्ण और सर्वज्ञ तो सृष्टि का कोई तत्व किसी काल में नहीं हो सका न हो सकेगा क्योंकि कोई भी अपूर्ण ईकाई किसी पूर्ण ईकाई का मान नहीं जान सकती। यह भी संभव नहीं है कि बहुत अधिक जानने वाला ही सफल हो, सफल वह है जिसे विषय विषेष का आवष्यक ज्ञान हो। महत्वपूर्ण यह है कि सफलता का संतोष किसी षिखर पर नहीं ले जाता लेकिन षिखर पर बैठे हुए शेखर का संतोष ही उसे आषुतोष बना कर जगत को अनुतोष देने वाला हो जाता है।’’
मेरी आक्रामकता कुछ षिथिल हुई और मैनें विनम्र होते हुए कहा … ‘‘कुछ सरल शब्दों में ….।’’
योगी ने शैक्षिक शब्दों में ही समझाते हुए कहा … ‘‘आवष्यक नहीं कि परीक्षा में पूछे जाने वाले सभी प्रष्नों का हल नित्यप्रति षिक्षा देने वाले वर्तमान व्यवस्था के षिक्षकों को भी ज्ञात हो, परीक्षा दे रहे नब्बे प्रतिषत पाठ्यक्रम को आत्मसात करने वाले वे मेधावी छात्र भी असफल हो जाएंगे जिन्हें परीक्षा में पूछे गये दस प्रतिषत प्रष्नों के उत्तर ज्ञात नहीं हैं किंतु वे छात्र उच्चतम अंको से सफल हो जाएंगे जिन्हें केवल परीक्षा में पूछे गये प्रष्नों के ही उत्तर ज्ञात हैं।’’
मेरी आक्रामकता विनम्रता के आंगन में समर्पित भाव से दण्ड़वत हो योगी को प्रणाम करते हुए बोली … ‘‘आप के शब्द भी आप की तरह मायावी हैं। शंकाओं को ध्वस्त करती हुई सत्य के धरातल पर दूर क्षितिज के असत्य स्तंभ पर अवलंबित आकाष की तरह विषाल और अनंत। समझ ही नहीं आ रहा कि सत्य क्या है और असत्य क्या है? इन्द्रियां जो स्थूल वस्तुजगत को अनुभव कर रही हैं वो सत्य है अथवा अदृष्य आंतरिक संतोष का आनंद?
योगी ने मेरे भ्रम को दूर करते हुए कहा … ‘‘जिस प्रकार विद्वान होने पर भी अनेक बार क्या करना चाहिये और क्या नहीं की असमंजसता में भ्रमित होते है उसी प्रकार बहुत गहन अध्ययन और विचारण के बिना प्रज्ञावान पण्ड़ितों के लिये भी सत्य और असत्य एक भ्रम के अतिरिक्त कुछ नहीं है जबकि सत्य की सत्ता शाष्वत और सार्वभौम है जबकि असत्य का अस्तित्व ही नहीं है। किंतु हां, जब हम किसी असत्य को होना कहते हैं तो उसका असत्य होना एक सत्य होता है। इसलिए सत्य को जानने का निरंतर प्रयास करना चाहिये और असत्य को जान कर मान लेना चाहिये कि यह असत्य है।’’
मैं अपने हाथों से उस धुंए को हटा कर योगी के धुंधले अक्स को साकार देखने के लिये प्रयास के पश्चात भी अपने शरीर की चेतना नहीं लौटा पा रही थी, किंतु मेरी मानसिक चेतना अपने चरम पर संघर्षरत थी और मैंने कहा … ‘‘हे देव, जिस प्रकार ज्वाला तेज होने पर प्रकाष के विस्तार में स्पष्टता का संतोष मुखरित होता है उसी प्रकार मेरे अंतर्मन में छाई असमंजसता दूर हो रही है किंतु अभी तक असंतोष का अंधकार कहीं दबा हुआ है। स्वयं को जला कर भी अपने प्रकाष के लिये दीपक को ख्याति दिलाने वाली दीपषिखा के समर्पण का दीपक मौन रह कर तिरस्कार क्यों करता है?’’
अपने माथे पर एक स्पर्ष सा अनुभव करते हुए मैंने सुना जैसे योगी कह रहे हों … ‘‘इन्द्रियों रूपी दीपषिखा की गति से होने वाली अनुभूति बाह्य और दृष्यमान वस्तुजगत का विषय है किंतु उनसे प्राप्त होने वाला संतोष अदृष्य और आंतरिक जगत का विषय है मंदाकिनी!! दीपक और दीपषिखा के पृथक-पृथक अस्तित्व का कोई मूल्य नहीं होता, किंतु यदि दोनों के मध्य घृत का अदृष्य और शांत भागीरथ अपना स्व दीपषिखा को ना दे तो दोनों के प्रेम का प्रकाष किसी पर्व के रूप में अपनी पहचान नहीं बना पाता। वस्तुतः दीपक तो घृत रूपी भागीरथ और दीपषिखा रूपी मंदाकिनी के असंतोष रूपी अंधकार की पूंजी को अपने अंक में समेट लेता है और जब घृत का भागीरथ दीपषिखा में शेष रह जाता है तब भी दीपक किसी तपस्वी की तरह मौन रह कर निष्चेष्ट दीपषिखा के प्रकाषपूर्ण जीवन की स्मृतियों को घृत भागीरथ के पुनः आगमन तक अपने संरक्षण में सहेज कर रखता है।’’
उस स्पर्ष से उत्पन्न सिहरन योगी के शब्दों के साथ धीरे-धीेरे शांत होती गयी और मेरी बंद होती आंखों में योगी की आंखों से तारे आच्छादित एक अद्भुत प्रकाष पुंज मुझे अपनी ओर आता हुआ प्रतीत हुआ और मैंने स्वयं को एक ठहरी हुई तारों की झील में झिलमिलाते हुए प्रकाष की तरंगों जैसा अनुभव किया। योगी ने उस झील में से एक अंजुरी भर प्रकाष ले कर अपने होंठों से लगाते हुए कहा … ‘‘अब उठो मंदाकिनी, इस माया की धुंध से बाहर निकलो। देखो, भागीरथ अपने भाग्य का रथ ले कर तुम्हारे प्रकाष के प्रवाह का प्रसाद पाने को …।
तारों की झील में एक विस्फोट सा हुआ और प्रकाष के एक तेज प्रवाह में पीपल के पत्ते में हिचकोले खाती विचलित और जलती तडपती हुई दिपषिखा सी मैं विस्मय और क्रोध से चीख पडी … ‘‘भागीरथ?’’
सिद्धेष्वर महादेव मंदिर प्रांगण की यज्ञवेदी में अग्नि की ज्वाला अपने पूर्ण वैभव में थीं। धूणी की धुआं का धुंध छंट कर मंदिर के गवाक्षों से छन कर हवा पे सवार हो कर आ रही रवि रष्मियों में अगर, तगर, गुग्गल, कपूर की सुगंध और गूंजते हुए घंटनाद के मद्धम पड़ते स्वर में सिद्धेष्वर महादेव की आरती का अंतिम चरण पूर्ण हुआ और पंडितजी जी मेरे समक्ष आरती का दीपक अपने सहायक को देते हुए कह रहे थे … ‘‘हां बेटी ये भागीरथ हैं। यहां पास ही प्रेमनगर में इनका कोचिंग इन्स्टिट्यूट है लेकिन ये भी तुम्हारे राघव भैया जैसे ही तार्किक और यथार्थवादी हैं। ये तो श्यामा बिटिया जब ऋषिकेष से आती है तब इसके साथ ही यहां आते हैं। लेकिन तू इनको कैसे जानती है? क्या पहले …’’
मैंने माया और यथार्थ के बीच कहीं अटकते हुए कहना चाहा … ‘‘मैं … वो कल … आज …।
श्यामा ने मेरा हाथ पकड कर हंसते हुए कहा … ‘‘सब सदाषिव शेखर सिद्धेष्वर आषुतोष शम्भूनाथ महादेव शंकर की माया है इसीलिये तो कल से आज तक में तीन बार भेंट हो गयी। किसी भी घटना में छिपे हुए उस महाशक्ति के संकेतों को हम में से कोई नहीं जानता।’’
मैंने झुझला कर कहा … ‘‘लेकिन उस महाषक्ति में कोई बात सीधे कहने का साहस क्यों नहीं है? वो हर बात सांकेतिक घटनाओं के माध्यम से ही क्यों …।’’
श्यामा ने स्पष्ट करने का प्रयास करते हुए कहा … ‘‘ताकि हम अपने प्रज्ञाकर्म से विरत्त व अकर्मण्य न हो जाएं। संकेतों को समझने न समझने से ही किये गये कर्म से प्रारब्ध और हमारे प्रारब्ध से ही उसके सृष्टि निर्माण व विध्वंस का आधार निर्मित होता रहे।’’
मेरी झुंझलाहट विरोध में परिवर्तित होने लगी थी और स्वर में कटुतापूर्ण हास्य से मैंने कहा … ‘‘अह् … निर्माण और विध्वंस का आधार!! क्या वह महाषक्ति एक बालक का बुद्धिविलास है? विध्वंस ही करना है तो वह महाषक्ति निर्माण करती ही क्यों हैं?’’
पंड़ितजी के पास मेरे प्रष्न का कोई उत्तर नहीं था। वे यह कहते हुए चले गये कि तुम लोग बातें करो, मुझे कुछ काम है और तब श्यामा ने कहा … ‘‘छोड़ो अरूणिमा, डेढ़ अक्षर का ‘क्यों’ एक अनंत अंतरिक्ष है और प्रत्येंक ‘क्यों’ का उत्तर संभव नहीं है। मैं तो भागीरथ के लिये सिद्धेष्वर के मनौती बिल्व पर ये कलावा बांधने आई थी। क्या तुम मेरी मनोकामना के लिये प्रार्थना नहीं करोगी?’’
मेरे मन में कहीं कल के उपकार का दबाव था और मैं श्यामा की बात टाल न सकी। मनौती बिल्व पर कलावा बांधते हुए मेरी दृष्टि उस कलावे पर पडी जो मैंने और शेखर ने बांधा था। श्यामा ने उसी कलावे पर अपना कलावा बांधते हुए प्रार्थना की। मुझे नहीं पता उसने क्या प्रार्थना की लेकिन मुझे एक घबराहट सी हुई और मैं गिरने लगी तो भागीरथ ने मुझे संभाल लिया और श्यामा दौड कर पानी ले आई। थोड़ा सा पानी पी कर मैं ठीक हुई तो वो मुझे घर छोड़ आने का हठ करने लगे लेकिन थोड़ी ही देर में आष्वस्त हो कर मुझे ध्यान से घर पहुंचने को कह हम वहां से विदा हो गये।
घर पहुंचते-पहुंचते सिद्धेष्वर मंदिर में योगी और उसकी माया को ले कर इतने विचार मन और मस्तिष्क में घूम रहे थे कि मां और अंजली भाभी ने कब मुझे चाय और कुछ खाने को दिया और कब मैं सो गयी पता ही नहीं चला।
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मेरा विश्वास है कि कहानी के इस मोड़ से आप को संकेत मिल रहे होंगे कि मंदाकिनी और भागीरथ की ये भेंट उन्हें संबंधों के किस पड़ाव पर ले जाएगी। लेकिन ठहरो … अभी क्लाईमेक्स आना बाकी है।

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