मंदाकिनी पार्ट 25 / MANDAKINI PART 25

मंदाकिनी पार्ट 25
मित्रों,
मंदाकिनी का ये एपिसोड प्यार के प्यासे मंदाकिनी के मन का दर्पण ही नहीं है बल्की इतिहास का एक झरोखा है जिसमें झांक कर आप देखेंगे कि हमारे साथ कैसे—कैसे और कहां—कहां छल हुआ है।
000
उन दिनों हाथी पांव से सर जॉर्ज एवरेस्ट हाउस तक का दो किलोमीटर का रास्ता केवल वन और पुरातत्व विभाग की रूची व प्रयोजन का ही विषय था। चांदनी ड्राइविंग सीट पर बैठे नागेष परसारा के पीछे और मैं उसके सामने शेखर के पीछे वाली सीट पर थी। थोड़े ही दिन पहले की बारिष से जॉर्ज एवरेस्ट मार्ग के दोनों ओर हरियाली से आच्छादित शांत जंगल और घाटी का नयनाभिराम मनभावन दृष्य तो मन को बहुत प्रफुल्लित कर रहा था। पंछियों की चहचहाहट भी चांदनी के गीत से लयबद्ध हो कर मेरी कल्पनाओं में शेखर के साथ कभी एकांत और मधुर क्षणों के जीवंत रंग भर रही थी लेकिन बारिष से उखड़ी हुई सड़क के गड्ढों में जीप के साथ मेरे स्वप्न भी हिचकोले खा रहे थे। हाथी पांव से थोड़ा ही आगे दाहिनी तरफ एक तीव्र घुमाव पर मैंने डर से शेखर को लगभग गले लिपटते हुए पकड़ा तो चांदनी के गीत की पहली पंक्ती पूरी हुई ‘त्यार दगड़ी बांधी छन मिन यो प्यार की डोर दगड़्या, अब मरलु या जीलु नि छोड़ूलो त्यार हाथ दगड़िया’। अर्थात ओ साथी, मैंने तेरे साथ ये प्यार की डोर बांधी है। अब मरूं या पार उतरूं मैं तेरा हाथ नहीं छोडूंगी।
नागेष परसारा तो ये नहीं देख सके लेकिन सामने बैठी गीत और परिस्थिती की संबद्धता पर सामने बैठी चांदनी की खिलखिलाहट मुझे लज्जा से अंदर तक वेध गयी। आगे का रास्ता इतना घुमावदार नहीं था और नागेष परसारा भी बहुत संभाल कर गाड़ी चला रहे थे। मैं संयत हो कर वर्तमान में लौटी और लज्जा से आंखें नीचे हुई तो चांदनी जैसे मुझे चिढ़ाते हुए कह रही थी ‘जब रोला दूर सुवा, याद रौली संग तेरी दगड़्या, हिरदय मा नौं छू तेरो, अंाखन् में अनवार तेरी दगड़्या’। अर्थात हे प्रिय जब तुम दूर रहोगे तो तुम्हारी याद मेरे साथ रहेगी, मेरे हृदय में तुम्हारा नाम है आंखों में तुम्हारे प्यार की तस्वीर है।
चांदनी की मासूमियत भरी एक-एक भावभंगिमा मेरे मन में उसके प्रति एक शंका के कारण मेरे हृदय पर चोट कर रही थी लेकिन उसके गीत की अगली पंक्ति तो मेरे ही भावों को प्रकट कर रही थी के बतू त्वै अपड़ू दिले को हाल दगड़्या, ब्याल रात भटी है मेरू यो हाल बेहाल दगड्या’। अर्थात मैं तुम्हें अपने दिल का हाल क्या बताऊं, कल रात से मेरा हाल बेहाल हुआ है।
सामने जॉर्ज एवरेस्ट हाउस दिखने लगा तो शेखर ने सीटी बजाते हुए चांदनी के गीत की मधुरता में मादकता भी भर दी और ये संयोग था या नियती की चांदनी के गीत का अगला पड़ाव ‘जो तू म्यार तरफ देख देलु दगड़्या, त्यार के बिगड़ी जालू दगड्या’ अर्थात अगर तुम मेरी तरफ देख लो तुम्हारा क्या बिगड़ जायेगा, आया तो शेखर ने चांदनी की तरफ देखा और मौसम की ठण्ड़ी-ठण्ड़ी हवा भी मेरे अंतस को झुलसा गयी मेरी आंखों को नम कर गयी।
जॉर्ज एवरेस्ट हाउस के पास के खुले मैदान से सौ कदम ही दूर थे लेकिन मैं अपने आप से बहुत दूर थी और चांदनी खड़ी हो कर मुझे पकड़ की गा रही थी ‘जनम जनेम को जोड़ी के नाता कियो कमाल दगड़्या, त्यार क्या बिगड़ी जो तू दे देलु अपडु रेशमी रुमाल दगड्या’ अर्थात हमारा ये जन्म-जन्मांतर का कमाल का रिष्ता जुड़ा है, यदि तुम अपना रूमाल मुझे दे दो तो तुम्हारा बिगड़ जाएगा। तब मैंने देखा कि शेखर के गले का स्कार्फ़ मेरे हाथ में आ गया था जो संभवतः हाथी पांव से आगे आये तीव्र दाहिनी घुमाव पर डर के कारण शेखर को पकड़ लेने के समय मेरे हाथ में रह गया था।
जॉर्ज एवरेस्ट हाउस समीपस्थ पार्किंग के अंतिम छोर पर नागेष परसारा ने गाड़ी रोकी, सामने एक खंडहर सा मकान था जो समय की मार से जर्जर हो कर भी बारिष में उग आने वाली घास-फूस और जंगली पौधों से श्रंगार किये किसी अधेड़ पहाड़न जैसा लग रहा था। यहां-वहां बिखरी हुई शराब की बोतलें और खाने के पैकेट इस जगह को मनचलों की ऐषगाह होने की गवाही दे रहे थे। जॉर्ज एवरेस्ट हाउस की श्वेत रंग की दरकती दीवारों पर हृदय में आधे धंसे तीर के चिन्ह और असफल प्रेमियों द्वारा अपने नाम के साथ अपनी प्रेमिकाओं के नाम किसी सूफ़ी संत की मज़ार को ताज महल बनाने का प्रयास करते दिखाई दे रहा था। जंगली जानवरों का मल और उनके द्वारा खाये हुए छोटे वन्यजीवों के अवषेष वातावरण में अजीब दुर्गंध ले कर बहती हवा सर जॉर्ज एवरेस्ट की हाहाकार करती आत्मा की पुकार सी लग रही थी। दीवार के पास दो ट्रम्फ मोटर साईकिल और खा कर फेंके हुए ताज़ा गोष्त के अवषेष चीख-चीख कर कह रहे थे कि हम से थोड़ी ही देर पहले शायद कोई वहां आया था और अब वे या तो कहीं आस-पास घूम रहे होंगे या ऊपर एवरेस्ट प्वाइंट पर गये होंगे।
वन अधिकारी से ट्यूरिस्ट गाइड बने नागेष परसारा ने जॉर्ज एवरेस्ट हाउस के बारे में बताते हुए कहा … यदि जानने के इच्छुक हो तो यहां के बारे में आप लोगों को बताऊं?’’
चांदनी तो जैसे अवसर को हथिया लेने में सिद्धहस्त थी। तपाक से अपनी पूरी मासूमियत के साथ बोली … ‘‘इसमें जानने जैसी बात ही क्या है? देखने से ही लग रहा है कि ये अंग्रेजों की रंगरेलियों की जगह रही होगी और क्या? जॉर्ज एवरेस्ट यहां कोई तपस्या करने तो आया नहीं होगा!!’’
हम सब चांदनी के निर्मल मन से कही हुई बात पर हंस पड़े। तब नागेष परसारा ने कहा … ‘‘ऊपरी आवरण देख कर ही कोई अनुमान लगाना हमेंषा सत्यता को इंगित नहीं करता। एकांत में तपस्या करने वाला योगी केवल आत्मोद्धार के लिये ऐसे निर्जन और दुर्गम स्थानों पर साधना करते हैं जिससे कि कोई उनकी स्वार्थ साधना में विघ्न न डाल सके। लेकिन कुछ योगी परमार्थ के लिये भी ऐसे दुर्गम स्थानों पर अपने परिवार व परिजनों से दूर रह कर कठिन श्रम करते हैं। अब यहां के बारे में जानने की इच्छा और मुझे बोलने की आज्ञा हो तो …।’’
चांदनी ने फिर नागेष परसारा की बात काटते हुए अपनी वाणी में गम्भीरता ला कर कहा … ‘‘इन पहाड़ी ऊंची-नीची, घुमावदार और किसी बटोही की प्रतीक्षा करती सूनी सड़कों को मेरी हंसी-ठिठोली करती बचकानी बातों से यादगार और आनंददायक बनाने और मेरे व्यंग का ऊपरी आवरण देख कर ही आपने अनुमान लगा लिया कि मैं हूं। सुनो, मैं यहां कि रहने वाली हूं इसलिये मैं बताती हूं इस जगह के बारे में।’’
चांदनी की बात से ज़्यादा चांदनी की भावभंगिमा ने हम सब को हत्प्रभ कर दिया। लेकिन चांदनी हमारी प्रतिक्रिया से निर्लिप्त अपनी ही धुन में जॉर्ज एवरेस्ट हाउस के बारे में बताते हुए एक प्रवीण ट्यूरिस्ट गाइड की तरह बोली … ‘‘इस समय हम मसूरी के लायब्रेरी बस स्टेंड से सात किलोमीटर दूर और समुद्रतल से सात हजार फीट की ऊंचाई पर हैं। ये जो सामने सफेद भुतहा खंडहर दिख रहा है, ये 4 जुलाई 1790 को युनाइटेड किंगड़म के क्रिकवेल में जन्में भारत के प्रथम सर्वेयर जॉर्ज एवरेस्ट का आवास व कार्यालय हुआ करता था जो उन्होंने 1820-30 में ब्रिटिष आर्मी के एक कर्नल विलियम सैम्सन व्हिष से पीछे हाथी पांव गांव की सात सौ एकड़ ज़मीन के साथ खरीदा था। यहीं पर उन्होंने चार सहायकों के साथ अपनी प्रयोगषाला और ऑब्ज़र्वेटरी बनायी थी। वर्ष 1843 में रिटायर होने के बाद वे कुछ वर्ष और यहां रहे और इंग्लैंड चले गये जहां 1 दिसंबर 1866 को उनकी मृत्यु हो गयी। आपकी जानकारी के लिये बता दूं कि वर्ष 1865 में रॉयल ज्योग्राफ़िकल सोसायटी द्वारा उनके सम्मान स्वरूप दुनियां के सब से ऊंचे पर्वत माउंट एवरेस्ट का नाम इन्हीं सर जॉर्ज एवरेस्ट के नाम पर रखा गया।’’
मैं अब तक जिसे एक मासूम पहाड़न अल्हड़ युवती समझ रही थी वो तो मीना से भी बड़ी भूगोल-षास्त्री निकली। मेरे साथ नागेष परसारा उसकी मुखमुद्रा पर छायी गम्भीरता को पढ़ने का प्रयास कर ही रहे थे कि चांदनी एक बार फिर नटखट विदूषक की तरह अपनी चुन्नी फैला कर बोली … ‘‘मसूरी की लंडौर स्थित ख्यातनाम स्कूल की भूगोल-षास्त्री चांदनी रावत को इस ज्ञानपूर्ण जानकारी के लिये उचित बख्शीष मिले ना मिले लेकिन ये बताना मेरा कर्तव्य है कि वो सामने दिख रहा षिखर मसूरी पर्वत का सब से ऊंचा षिखर है जहां से हिमालय के हिमाच्छादित षिखरों का दर्षन किया जा सकता है लेकिन वहां तक पहुंचने का रास्ता इस बारिष के बाद बेहद खतरनाक और समय के दृष्टिकोण से बहुत खर्चीला है। हां यदि आपकी आंखें बादलों को भेद सके तो आप इसकी पूर्ति उधर नीचे दून घाटी, नर्मदा घाटी, अलगाड़ नदी और सहस्त्रधारा के मनोरम नयनाभिराम दृष्यों से कर सकते हैं।’’
मैं चांदनी के इस नितांत अपरिचित रूप से कुछ कहने न कहने की असमंजसता में ही थी कि शेखर ने चांदनी से पूछा … ‘‘क्या जॉर्ज एवरेस्ट या उनके किसी ब्रिटिष साथी ने माउंट एवरेस्ट के दर्षन किये थे? दूसरा प्रष्न ये कि जॉर्ज एवरेस्ट तो वर्ष 1943 में ही सेवानिवृत हो कर कुछ और दिन यहां रहे और इंग्लेंड़ चले गये जबकि माउंट एवरेस्ट की ऊंचाई तो 1952 के बाद पता लगी। तो माउंट एवरेस्ट का नाम जॉर्ज एवरेस्ट के नाम पर क्यों रखा गया?’’
शेखर के चौंकाने वाले इस प्रष्न पर चांदनी का चेहरा देखने लायक था। जहां उसकी उछृंखलता लोप हो कर हमारी ही तरह जिज्ञासा के भाव आ चुके थे। उसे निषब्द देख शेखर ने कहा … ‘‘तुमने वो बताया जो तुमने पढ़ा और तुमने वो पढ़ा जो तुम्हें पढ़ाया गया। ये सही है कि एक दृष्टिकोण से जॉर्ज एवरेस्ट भारत के प्रथम सर्वेयर थे जिन्हें ब्रिटिष भारत का अधिकारिक मानचित्र बनाने के लिये 1930 में रॉयल ज्योग्राफिकल सोसायटी का डायरेक्टर बनाया गया। लेकिन वो पहले सर्वेयर नहीं थे, उनसे पहले 1806 में विलियम लैंब्टन द्वारा ब्रिटिष भारत की सीमाओं का सर्वे प्रांरभ कर दिया गया था। जॉर्ज एवरेस्ट सोलह साल की उम्र में रॉयल आर्टिलरी में एक सामान्य कैडे़ट के भर्ती हो कर भारत आये और कोलकाता व बनारस के मध्य टेलीग्राफिक संचार का काम करने लगे।’’
शेखर की किसी भी विषय पर पकड़ होना मेरे लिये आष्चर्य का कारण नहीं था। मुझे तो मेरी सहयोगी भूगोल-षास्त्री मीना की याद आ रही थी लेकिन नागेष परसारा और चांदनी के चेहरों पर कौतुहल मिश्रित भाव बता रहे थे कि वे शेखर के षिष्यत्व में आ गये थे। शेखर ने आगे बताते हुए कहा … ‘‘समय पंख लगा कर उड़ता रहा और दस साल बाद यानी वर्ष 1616 में जॉर्ज एवरेस्ट की प्रतिभा और लगन ने जावा के गवर्नर स्टैमफोर्ड रैफल्स का ध्यान आकर्षित किया तो जॉर्ज एवरेस्ट जावा द्वीप की सर्वे टीम के साथ दो साल तक जावा का सर्वे करने के बाद 1818 में भारत लौटे और थोड़े समय भारत के सर्वेयर जनरल लैंबटन के मुख्य सहायक रह कर इंग्लैंड चले गये। दुर्भाग्य से 1820 में दक्षिणी अफ़्रीका की यात्रा करते समय तीव्र ज्वर से उन्हें पांवों के पक्षाघात रोग ने जकड़ लिया और जीवन भर व्हील चेयर में धंस के रह गये।’’
जॉर्ज एवरेस्ट के पांवों के पक्षाक्षात के रहस्य से अपरिचित मैंने विस्मित हो कर एक तार्किक प्रष्न पूछा … ‘‘एक अपंग व्यक्ति पहाड़ों की ऊंचाई कैसे नाप सकता है?’’
अपने विषयात्मक ज्ञान पर गर्व करते हुए मेरे प्रष्न का उत्तर चांदनी ने यह कहते हुए दिया … ‘‘सर जॉर्ज एवरेस्ट ने एक थियोडोलाइट नाम के यंत्र का आविष्कार किया था जिससे किसी भी वस्तु या स्थान का क्षेतिज और उर्ध्वाधर विकोणमान ज्ञात किया जा कर कुछ गणनाएं की जाती है और वस्तु या स्थान की ऊंचाई का माप ज्ञात किया जा सकता है।’’
शेखर ने चांदनी की तरफ प्रषंसा से देखते हुए कहा … ‘‘वो तो ठीक है लेकिन थियोडोलाइट नामक जिस यंत्र का आविष्कारक जॉर्ज एवरेस्ट को माना जाता है वो थियोडोलाइट यंत्र और उससे गणना का विज्ञान तो ईसा से पूर्व के मिश्र के पिरामिड्स के निर्माण से भी पहले डायोप्ट्रा नाम से निर्मित हो चुका था। इसके अतिरिक्त चौदहवीं पन्द्रहवीं शताब्दी की किताबों में थियोडालाइट जैसे उपकरणों के पेंटामेट्रिया, एलिडेड, अज़ीमुथ, अल्टाज़िमुथ, पॉलिमेट्रम आदि अनेक नाम बताये गये हैं। लियोनॉर्ड डिगेज ने वर्ष 1571 में मुद्रित अपनी एक पुस्तक में एक ऐसे भारतीय उपकरण का उल्लेख किया है जो किसी भी स्थल की आकृति का सटीक अनुमान देता था। वास्तविकता यह है कि जॉर्ज एवरेस्ट द्वारा बनाया गया कथित थियोडोलाइट उपकरण जोषुआ हैबेमेल नामक एक भूगोलषास्त्री ने वर्ष 1576 में ही बना दिया था।’’
मैं इस चर्चा में केवल एक श्रोता की तरह थी और नागेष परसारा एक वन अधिकारी के रूप में भूगोल के विद्यार्थी की तरह उन दोनों की चर्चा को बहुत गम्भीरता से सुन रहे थे। उधर इतना कह कर शेखर हंसने लगे तो चांदनी ने क्षुब्ध हो कर झल्लाते हुए कहा … ‘‘आप कहना क्या चाहते हैं कि जॉर्ज एवरेस्ट का कोई योगदान नहीं था?’’
शेखर को जैसे चांदनी की झल्लाहट में आनंद आ रहा था, उन्होंने उसी तरह हंसते हुए कहा … ‘‘देखो भई बहुत सीधी सी बात है तुमने ही बताया कि जॉर्ज एवरेस्ट 1830 से 1841 तक भारत के सर्वेयर जनरल रहे और उसके बाद थोड़े दिन और रूक कर वे इंग्लैंड चले गये जहां 1862 में उनको रॉयल ज्योग्राफ़िकल सोसायटी का अध्यक्ष बना दिया गया। माउंट एवरेस्ट की ऊंचाई को नापने का काम तो 1852 में शुरू हुआ। यानी जॉर्ज एवरेस्ट के समय में तो माउंट एवरेस्ट का सर्वे भी शुरू नहीं हुआं!!’’
हमारी आंखें शेखर द्वारा किये गये इस रहस्याद्घाटन से विस्फारित थी तो चांदनी भी अब शांत हो कर शेखर की बात सुन रही थी। शेखर ने अपना कथन जारी रखते हुए कहा … ‘‘दूसरी महत्वपूर्ण तथ्यात्मक सच्चाई यह है कि 1952 से 1965 तक हिमालय की कंचन जंघा चोटी को ही विष्व का सर्वोच्च षिखर माना जाता था जो उस समय नेपाली में सागर माथा और तिब्बती में चोमो लुंगमा कहते थे। सर्वे टीम के ब्रिटिष सदस्यों को नेपाल और तिब्बत में प्रवेष की अनुमति नहीं थी तो जॉर्ज एवरेस्ट या उनके उत्तराधिकारी एन्ड्र्यू स्कॉट वॉघ भी कभी वहां नहीं गये। मसूरी या किसी भी अन्य स्थान से दिखने वाले इसी षिखर को ब्रिटिषर्स ने पीक 15 नाम से सम्बोधित किया क्योंकि उनके लिये दूर से दिख रहे ये षिखर केवल एक नंबर ही थे।‘‘
शेखर पल प्रति पल एक नया रहस्य प्रकट कर रहे थे और हम मंत्रमुग्ध हो कर अगले रहस्य को जानना चाह रहे थे। इस क्रम में नागेष परसारा ने हमारा नेतृत्व करते हुए शेखर से पूछा … ‘‘फिर आखिर किस ने माउंट एवरेस्ट यानी इस पीक 15 की ऊंचाई का पता लगाया और जॉर्ज एवरेस्ट के खाते में किसने इसे क्रेडिट किया?’’
शेखर ने बिना किसी भूमिका के कहा … ‘‘बंगाल का एक गुमनाम गणितज्ञ राधानाथ सिकदर!!’’
चांदनी तो भूगोल की विद्यार्थी होने के कारण संभवतः यह नाम जानती होगी लेकिन नागेष परसारा की बढ़ी हुई उत्सुकता ने उसे पूछने पर विवष किया तो उसने शेखर से कहा … ‘‘षेखर साहब, आप की ये अदा पसंद आयी कि स्वादिष्ट व्यंजनों के स्वप्न दिखा कर आप पहले तो भूखे की भूख और प्यासे की प्यास इतनी बढ़ा देते हैं फिर …।’’
चांदनी ने एक बार फिर नागेष परसारा की बात काटने का अवसर लपकते हुए कहा … ‘‘जब 1830 में सर जॉर्ज एवरेस्ट सर्वे ऑफ इण्ड़िया के डायरेक्टर बने तो पष्चिम बंगाल के एक गणितज्ञ राधानाथ सिकदर को कम्प्यूटर के पद पर नियुक्त किया। क्योंकि उस समय तक कम्प्यूटर का आविष्कार नहीं हुआ था और सारी गणनाएं मानव ही करते थे जिन्हें कम्प्यूटर कहा जाता था।’’
शेखर ने चांदनी की तरफ प्रषंसात्मक दृष्टी से देखते हुए ‘षाबाष चांदनी’ कह कर नागेष परसारा से कहा … ‘‘यही राधानाथ सिकदर अगले बीस वर्षों में सर्वे ऑफ इण्ड़िया में चीफ़ कम्प्यूटर के पद पर पहुंचे तब तक जॉर्ज एवरेस्ट 1943 में सेवानिवृत हो कर इंग्लैंड़ जा चुके थे और उनकी जगह उनके सहायक एन्ड्र्यू स्कॉट वॉघ डायरेक्टर बन चुके थे। इन्हीं चीफ कम्प्यूटर राधानाथ सिकदर ने कंचनजंघा, सागरमाथा, चोमो लुंगमा या कहो कि पीक 15 को मापने का काम शुरू किया।ं मैं बता चुका हूं कि नेपाल और तिब्बत की इस सीमा में किसी भी विदेषी को प्रवेष की अनुमती नहीं थी तो एन्ड्र्यू स्कॉट वॉघ भी वहां नहीं गये थे।’’
शेखर के कथा मंडल में पूरी तरह खोये हुए नागेश परसारा ने सम्मोहित भाव से पूछा … ‘‘फिर क्या हुआ?’’
चांदनी तो जैसे नागेष परसारा को सताने की ठान चुकी थी। ठण्डी़ होती हवा में अपने दुपट्टे को मुंह में दबा कर आंखों की पुतलियों को तितली की तरह फ़डफ़ड़ाते हुए हिला कर बोली … ‘‘दैया!!! फिर झुमका गिरा रे!!!
रहस्य व रोमांच से भरपूर किसी फ़िल्म के चरम पर पहुंचने से पहले ही जैसे बिजली चली जाए, कुछ ऐसा ही चांदनी की ‘झुमका गिरा रे’ ने हमारी गम्भीर मुखमुद्रा को हंसी में बदल कर बादलों की नमी की अनुभूती करा दी। हवा तेज तो नहीं थी लेकिन एवरेस्ट प्वाइंट की तरफ से उतर रहे बादलों के साथ कुछ लोगों के अक्स भी हिलते नज़र आ रहे थे। संभवतः ये वो लोग थे जिनकी मोटर साईकिलें एसरेस्ट हाउस की दीवार के पास खड़ी थी।
शेखर की बात भी अपने अंतिम पड़ाव पर पहुंच चुकी थी, उन्होंने नागेष परसारा के प्रष्न का जवाब देते हुए कहा … ‘‘फिर अगले चार वर्ष तक राधानाथ सिकदर ने पीक 15 को माप कर बताया कि 8839.02 मीटर यानी लगभग 29000 फिट है। यहीं असल खेल शुरू हुआ और बहुत दिनों बाद एन्ड्र्यू स्कॉट वॉघ ने इसी पीक 15 का नाम अपने गुरू जॉर्ज एवरेस्ट के नाम पर रखने का प्रस्ताव रॉयल ज्योग्राफिकल सोसायटी को भेज दिया और ये श्रेय एक भारतीय के नाम होने से रह गया।’’
नागेश परसारा ने एक तरह से धन्यवाद ज्ञापित करते हुए कहा … ‘‘माउंट एवरेस्ट की दिलचस्प कहानी को बताने का आप का तरीका भी बहुत दिलचस्प है शेखर साहब! ल्ेकिन आप भूगोल के विद्यार्थी तो नहीं हैं फिर …?’’
माउंट एवरेस्ट और शेखर की कथा के चरम की तरह चांदनी की नटखटता भी अपने चरम पर थी। उसने दोनों हाथों में अपने दुपट्टे को हवा में फ़ैला कर दूनघाटी की तरफ आवाज़ लगाते हुए कहा … ‘‘लो कर लो बात, ब्याह कर के भूल गये तो दूसरी बारातों में भी नहीं गये क्या? जंगल में जानवरों के साथ रहते-रहते मनुष्यों की सभ्यता और परंपरा भी भूल गये क्या? पढ़ाई में विषय चाहे कुछ भी रहा हो, प्रतियोगी परीक्षाओं में अपने विषय से अलग भी पढ़ना पड़ता है और शायद ज़्यादा गहराई से।’’
मैं चांदनी के व्यवहार को नहीं समझ पायी लेकिन शेखर ने एक अर्थपूर्ण मुस्कुराहट के साथ कहा … ‘‘चांदनी सही कह रही है। प्रतियोगी परीक्षा के लिये दूसरे विषय अधिक गम्भीरता से पढ़ने पड़ते हैं। रही दिलचस्प होने की बात, तो माउंट एवरेस्ट को समुद्र तल से ऊंचाई के आधार पर दुनियां का सब से ऊंचा षिखर माना जाता है जब कि आधार से षिखर तक ऊंचाई के दृष्टिकोण से अमेरिका का माउना किया दुनियां का सब से ऊंचा पर्वत है। माउंट एवरेस्ट तो दुनियां का सब से युवा पर्वत है जिसकी ऊंचाई प्रत्येक वर्ष चार मिलीमीटर यानी प्रत्येक सौ वर्ष में सोलह इंच बढ़ जाती है। सब से दिलचस्प बात यह कि माउंट एवरेस्ट पर प्रतिदिन दो बजे बाद मौसम खराब होना शुरू होता है इसलिये माउंट एवरेस्ट पर दो बजे से पहले पहुंचना और दो बजे से पहले लौटना होता है।’’
मेरे लिये ये जानकारी नितांत नयी थी जिसे मैं स्कूल में मीना सहित मेरी दूसरे सहयोगियों पर प्रभाव जमाने के लिये प्रयोग करने की योजना बना रही थी लेकिन शेखर ने बात जारी रखते हुए कहा … ‘‘कितने संयोग की बात है ना कि हम जॉर्ज एवरेस्ट की तपस्थली पर हैं, दो बजने वाले हैं और देखो मौसम खराब हो रहा है।’’
और वास्तव में हवा तेज हो कर बारिष की फुहारों ने जॉर्ज एवरेस्ट हाउस को नहलाना शुरू कर दिया। हमारी पास बारिष से बचने के लिये कुछ नहीं था लेकिन शेखर ने अपने हेवरसेक से एक विंडचीटर निकाल कर मुझे दी और एक पानी पल्ला नाम की छह गुणा तीन फिट की दरी चांदनी को देते हुए उसे ओढ़ लेने को कहा। एक मंकीकेप निकाल कर नागेष परसारा को दी और ख़ुद ड्राइविंग सीट पर बैठ कर जीप स्टार्ट कर हाथी पांव की ओर चल पड़े। रास्ते का बांकापन शेखर की बेहद सधी हुई ड्राईविंग के सामने नतमस्तक था और नटखट चुलबुली चांदनी की अठखेलियां पानी पल्ले को दोनों हाथों से संभालने में व्यस्त थी। बारिष से भीगते-बचते और हवा से लड़ते हुए कब हाथी पांव चौराहा आ गया पता ही नहीं चला। हां विंडचीटर पहने हुए मैं थोड़ी सुविधापूर्वक होने से देख पा रही थी कि हमारे पीछे मोटर साईकिल पर आने वाले चार लोग भी हमारी तरह बारिष और हवा से बचना चाह रहे थे।
हाथी पांव चौराहे पर पहुंचे तो नागेष परसारा ने शेखर को कुछ देर रूक उनके कपड़े सूखने तक चाय-कॉफी पीने को कहा। एक रेस्टोरेंट में मैं और चांदनी एक कोने में बैठ कर गर्म कॉफ़ी की चुस्कियां लेते हुए बात कर रही थी तो शेखर और नागेष परसारा भट्टी के पास चाय पीते हुए आग ताप रहे थे।
000

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *