मंदाकिनी पार्ट 16 / Mandakini part 16

राघव भैय्या और शेखर अपना सामान बांध चुके थे, मैं और मीना भी तैयार थी। अंजली भाभी भी दुर्गा विसर्जन के लिये जाना चाहती थी लेकिन मां ने उन्हें रोक लिया। दुर्गा विसर्जन की सब तैयारी पूरी हो चुकी तो पूजा और आरती में कुछ पडौसी भी आ गये और वे भी हमारे साथ एक छोटे से जुलूस की तरह जयकारे लगाते हुए लगभग पांच बजे दुर्गा विसर्जन के लिये रवाना हुए। मैं मेरी मोपेड़ पर शेखर के साथ मां दुर्गा की प्रतीक प्रतिमा और मीना राघव भैय्या के साथ मोटर साइकिल पर दूसरी सामग्री लिये बैठी थी बाकी लोग अपने-अपने साधन से ढोल, रणसिंगा बजाते हुए और जयकारे करते चल रहे थे। लगभग साढे पांच बजे हम टोंस (तमसा) नदी के चंद्रौटी नामक स्थान के पास पहुंचे जहां दुर्गा विसर्जन के लिये आये लोग मां दुर्गा की प्रतिमाओं को श्रद्धापूर्वक बहुत भावभीनी विदाई दे रहे थे। हम लोगों ने अपनी गाडियां एक रेस्टोंरेंट वाले के हवाले की और एक छोटी सी पालकी बनाई जिस पर मां दुर्गा की प्रतिमा विराजित कर साथ में लाई सामग्री से मां दुर्गा का श्रंगार किया और शेखर ने मां दुर्गा की स्तुति में सब के वरदान मांगते हुए प्रार्थना करते आगे आगे चलने लगे और सभी लोग पालकी उठाए साथ में गाते रहे।
मां दुर्गे दुर्गति दूर कर हमें ऐसा वर दे।।
तन मन घर आंगन में सप्त रंग भर दे।।
तन्द्रा निद्रा सुप्त गुप्त अन्तस में
रंग तरंग ऊषा उजास भर दे।।
मां दुर्गे दुर्गति दूर कर हमें ऐसा वर दे।।
नित नव शब्द विहग काव्य नभ में,
लय गति ताल छन्द साज सब में
नव खण्ड भूमि भुवन सब भव में
वन उपवन विहग वृन्द कलरव मे
प्रज्ञा ऋतंभरा व्याप्त व्योम प्रणव में
अक्षर अक्षर लाघव में सप्त स्वर दे।।
मां दुर्गे दुर्गति दूर कर हमें ऐसा वर दे।।
छायी रहे शुभ शुचि आषीष घटा
निखरे नित नवल नवद छन्द छटा
रहें नत शीष रवीष नभ चन्द्र सदा
रिद्धि सिद्धी श्री योगमाधुरी जयप्रदा
नवग्रह बजावे नौबत द्वार चन्द्रवर दे
मां दुर्गे दुर्गति दूर कर हमें ऐसा वर दे।।
यमुना तट के वृक्ष वृन्द कदम्ब में
कपिला कामधेनु गौरी के रंभ में
सत्य सदाषिव सौन्दर्य के दंभ में
सृष्टीजगत के आदि और आरंभ में
वेद भेद के संवेद अवेद अवलंब में
काव्य वीथियों में शब्दों का घर दे
मां दुर्गे दुर्गति दूर कर हमें ऐसा वर दे।।
अक्षर कुण्डली जागृत हो सबल
भेदे षटरस विधचक्र करे विमल
काव्य सहस्त्रार का ब्रह्म कमल
निर्झर झरे स्वाती पयोध के दल
शब्द सरिता करती रहे कलकल
अष्ट सिद्धी नव निधि बद्धकर दे
मां दुर्गे दुर्गति दूर कर हमें ऐसा वर दे।।
शेखर के प्रार्थना रस में डूबे हम कब चंद्रौटी तट के पास पहुंच गये पता ही नहीं चला लेकिन सुबह के छह बज चुके थे। टोंस नदी के पानी में स्नान के लिये आतुर पहाडियों की ओट से सूरज की किरणें आ कर अपनी चमकती पाजेब से कलकल छनछन का स्वर उत्पन्न कर रही थी। कुछ अतिउत्साही युवा नाव से तमसा की मध्य धारा में और दूसरे किनारे पर ही दुर्गा विसर्जन कर रहे थे। लेकिन दुर्गा विसर्जन करते हुए हम सबकी आंखें छलछला रही थी।
दुर्गा विसर्जन के बाद रेस्टोंरेंट में बाहर छतरी के नीचे चाय के साथ हम गुनगुनी धूप का नाष्ता कर रहे थे तब मीना ने राघव भैय्या से कहा … ‘‘राघव भैय्या, क्या आप की बटालियन में होने वाला शस्त्र पूजा में हम लोग शामिल नहीं हो सकते?’’
राघव भैय्या ने उत्तर दिया … ‘‘ऐसी कोई बंदिष तो नहीं है लेकिन फौज का अनुषासन ये है कि पहले अनुमति लेनी पड़ती है। वैसे भी तुम्हें देख कर कमांडेंट जब अंजली के लिये पूछेंगें तो मेरे पास कोई उत्तर नहीं होगा। दूसरी बात कि यहां बुआजी को बताये बिना अरूणिमा के लिये भी उचित नहीं होगा।’’
मीना ने राघव भैय्या को जवाब देते हुए शेखर से पूछा … ‘‘मां को तो पडौसियों में से कोई भी बता देगा। तुम क्या कहते हो शेखर?’’
शेखर ने बड़ी चाय का एक घूंट पी कर कहा … ‘‘मियान में रखी जंग लगी तलवारों से युद्ध नहीं जीते जाते, मैं शस्त्रों की पूजा में नहीं बल्की शस्त्रों की सफाई और संचालन में विष्वास करता हूं।’’
राघव भैय्या ने चाय का प्याला टेबल पर रख कर उठते हुए कहा … ‘‘भाई तू रहने दे, तू शुरू मत हो यार। तू मेरी बटालियन में निहत्थे लड़ना सीखने आया है। मतलब तुझे अंदर के शत्रु से लडना है या तू तब लडेगा जब दुष्मन घर में घुस कर संकट बिल्कुल पास आ जाए। तुझे शस्त्र की ज़रूरत हो भी सकती है नहीं भी। मुझे दुष्मन को पास आने से रोकने के लिये शस्त्र की ज़रूरत है जिसमें शस्त्रों की सफाई और संचालन मेरा रोज का काम है। तू छह महीने में जो यहां से सीख कर जाएगा वो हो सकता है तेरे शहर के जंगल में कभी काम न आए लेकिन बर्फीले पहाड़ों में हमारे लिये रोज का काम है। अगले पन्द्रह दिन में तू दीपावली की छुट्टी में घर चला जाएगा तब भी मैं यहां ड्यूटी कर रहा होऊंगा। साढे छह बज गये हैं, अब चल नहीं तो कमांडेंट साहब पिट्ठू परेड़ से मेरी सफ़ाई, धुलाई और पूजा एक साथ कर देंगे और तेरी निहत्थे लडाई की कला मेरे काम नहीं आएगी।’’
फिर मुझे संबोधित करते हुए बोले … ‘‘और हां अरूणिमा, अगले शनिवार को शरद पूर्णिमा के लिये माधव भाई साहब ने निमंत्रण दे रखा है और शुक्रवार को ईद की छुट्टी है तो तुम शुक्रवार को ही अंजली को भी ले आना। उसके बाद मैं आ नहीं पाऊंगा क्योंकि सोमवार से दस दिन के लिये मैं जंगल सर्वाईवल ट्रेनिंग में रहूंगा और उसके तुरंत बाद दीपावली की ड्यूटी में इधर-उधर कहीं टंग जाऊंगा। शेखर भी अगले सोमवार से दस दिन के लिये ट्रेनिंग से मध्य अवकाष होने से शनिवार को ही अपने घर चला जाएगा।’’
राघव भैय्या के अंतिम शब्द मेरे सर में हथौड़े की तरह लगे और मेरे पावों में एक सिहरन सी दौड़ गयी। मीना समझ गयी और राघव भैय्या से बोली … ‘‘ठीक है ठीक है भैय्या, आप अपनी शस्त्र पूजा करो, हम थोड़ी देर और यहां रूक कर घर चले जाएंगे।’’
राघव भैय्या और शेखर मोटर साईकिल से मसूरी के लिये रवाना हो गये। मेरे डूबते रक्तचाप को मीना ने मेरी पीठ थपथपा कर उबारना चाहा तो मेरे हृदय का दर्द मेरी आंखों से बह निकली तमसा के धारों में काजल को बहा ले गया। मीना ने मेरे दर्द को सहलाते हुए कहा … ‘‘षेखर से बिछड़ने की बात सुन कर ही तेरा ये हाल है, तू सचमुच शेखर से बिछड़ गयी तो …।’’
मैंने मीना के मुंह पर हाथ रखते हुए कहा … ‘‘षुभ शुभ बोल मीना, अभी तो मिले भी नहीं और तू बिछडने की बात कहती है। आषा की एक किरण अंजली भाभी है जो हमारे बारे में जानती है। लेकिन मैं नहीं जानती कि उन्होंने राघव भैय्या से बात की या नहीं? राघव भैय्या मां से और मां कल परसों वापस आ रहे बाबूजी से बात करेगी। मेरा मन आषा-निराषा के झूले में झूल रहा है मीना!!’’
मीना ने मुझे सांत्वना देते हुए कहा … ‘‘अरे फिर उदास होने की क्या बात है मेरी लाडो, आज अंजली भाभी बता ही देगी कि उसकी शेखर से क्या बात हुई।’’
फिर मुझे गुदगुदाते हुए हंस कर बोली … ‘‘और फिर परसों शुक्रवार को तो हम मसूरी चल ही रहे हैं मेरी चंदो। तू अपने चांद को देखना और हम ….।
मैंने उसे झिड़कते हुए प्यार से कहा … ‘‘कितनी शैतान है तू, लेकिन बहुत अच्छी भी है।’’
मीना ने उठते हए कहा … ‘‘चल रहने दे, रहने दे। अब चल, घर चलते हैं। तेरे घर से मुझे मेरी साईकिल भी लेनी है। घर पहुंचते-पहुंचते देर हो जाएगी, सब पता नहीं क्या-क्या सोच रहे होंगे।’’
मैंने मीना का हाथ पकड़ कर उसे बैठाते हुए कहा … ‘‘चलते हैं ना!! थोड़ी देर और बस! अच्छा ये बता, कल तू शेखर की परीक्षा लेने गयी थी फिर ऐसा क्या हुआ कि तू रोने लगी और उनके पांव छू रही थी?’’
मीना गम्भीर हो कर बोली … ‘‘अरे हां अरूणिमा! वो तो एक सपने जैसा लग रहा है। जब शेखर ने मेरे भ्रूमध्य में हाथ रख कर यह कहा कि ‘‘कामाग्नि के तिमिर रोग से उत्पन्न अज्ञान की कालिमा के कारण मनुष्य को नारी का देह संसार में केवल आनंदक्रीड़ा का छोटा सा आंगन मात्र दिखाई देता है। किंतु इसी कालिमा को विवेक रूपी अंजन बना कर आंखों के दीपक में ज्ञानज्योति प्रदीप्त करता है तो मन की चंचल दीपषिखा वायुरहित हृदयकक्ष में स्थिर हो कर अपनी धूम्र से उसके अन्तरलोक में कलुषता की कालिमा को लील लेती है और निषेष प्रकाष में देख पाता है रतिश्रम से षिथिल मांस पिण्ड से निसृत होता एक व्यर्थ प्रवाह’’, तो मैंने अपने शरीर को दो हिस्सों में बंटा हुआ देखा। एक हिस्सा हड्डियों का कंकाल और दूसरा मांस का निर्जीव लोथड़ा। फिर एक अद्भुत हल्का-हल्का नीला झिलमिल प्रकाष अपने अंदर देखा जहां बहुत से भंवरों की ध्वनि गूंज रही थी बिल्कुल वैसी ही जैसी हम ने शेखर को रोषनदान से झांक कर देखते हुए सुनी थी। और अपने अंदर ही एक ऐसा अद्भुत आनंद जो मैंने प्रथम मिलन की मधु रात्रि के चरम में अनुभव किया था। सच तो यह है कि मैं प्रथम मिलन का आनंद तो बता सकती हूं किंतु उस आनंद का वर्णन नहीं कर सकती।’’
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घर पहुंचे तो हर चीज मेरी तरफ प्रष्न भरी दृष्टि से देखती अनुभव हुई। मां और अंजली भाभी को सारा हाल सुनाया, थोडी ही देर बाद मीना अपने घर जा चुकी थी और मां भी सब्जियां, फल और दूसरा घरेलू सामान लाने चली गयी। तब अंजली भाभी की तरफ मैंने केवल एक आषा से देखा। अंजली भाभी ने बिना कहे ही मेरे मन की बात पढ़ ली थी, मुझे अपने पास बिठा कर बोली … ‘‘अरूणिमा मैंने तुम्हारे भैय्या से बात करने से पहले शेखर से बात कर के तुम्हारे प्रति उनकी सोच जाने बिना बात करना उचित समझा लेकिन कल जब मैं शेखर से बात करने नीचे आई तो मीना उनके पास थी। अब शुक्रवार को ईद, शनिवार को शरद पूर्णिमा और रविवार के तीन दिन हमारे पास होंगे जब हम मसूरी में उनके साथ होंगे। मैं समय मिलते ही पहले शेखर से फिर रष्मि भाभी और तुम्हारे राघव भैया से बात करूंगी। क्योंकि मैं जानना चाहती हूं कि वो क्या बात है जो शेखर तुम्हारे इतने समीप आ कर भी दूर हैं। कुछ बात है जो वो तुम से कहना चाहते हैं और कह भी रहे हैं लेकिन हम समझ नहीं पा रहे। सब ठीक रहा तो बुआजी और बाबूजी से बात करने से पहले माधव भाई साहब को भी विष्वास में लेना ठीक रहेगा।’’
फिर अंजली भाभी ने मुझे चद्दर ओढा कर मेरा षिर सहलाते हुए कहा … ‘‘अब तुम सो जाओ अरूणिमा!! क्योंकि तुम दो रातों से सोई नहीं हो।’’
मैं अंजली भाभी को कुछ भी तो न कह सकी कि मेरे हृदय में विचारों के झंझावत से आषा-निराषा की लहरों में मेरी मनोकामना की नाव कितने हिचकोले खा रही थी। दो दिन बाद ईद से रविवार तक तीन दिन शेखर के साथ होने की उमंग और उसके बाद उनके दस दिन तक प्रषिक्षण से मध्य अवकाष में घर चले जाने के दंष का मिश्रित प्रभाव मेरी आंखों में तमसा के धारों की तरह बह निकला। अंजली भाभी ने अपने हाथ मेरे कंधों पे लपेटते हुए कहा … ‘‘रो क्यों रही हो अरूणिमा? तुम्हारे और मीना के साथ शेखर की नैतिकता ने उन्हें मेरी दृष्टि में उस षिखर पर बैठा दिया है जहां मैं साफ-साफ देख पा रही हूं कि शेखर किसी के साथ छल नहीं कर सकते। विचार करो कि परसों रात की तुम्हारे रूप और यौवन की उन दहकती चिंगारियों से शेखर की देह धूणी सुलग उठती और तुम्हारा स्व उस अग्निस्नान में स्वाहा हो जाता तो तुम्हारी झोली में सिसकती आहों के सिवा के क्या रह जाता? इसलिये शेखर के दिये हुए मंदाकिनी नाम के सम्मान को गंगा-जमना के इन धारों में तिरोहित कर तुम्हारे प्रेम और समर्पण का अपमान मत करो।’’
अंजली भाभी की अपनत्व भरी बातों से मुझे कुछ ढाढस बंधा तो मैंने साहस जुटा कर कहा … ‘‘भाभी मैं शेखर को समझ ही नहीं पा रही हूं। कभी लगता है वे जीवन गीत के सभी राग, रंग और रस से सिक्त श्रंगार विधाओं में आकंठ डूबे हैं लेकिन अगले ही क्षण उनमें वियोग के सोते फूट पड़ते हैं। वो मेरे समीप आना चाहते हैं लेकिन सामीप्य के उन अंतिम क्षणों में जैसे कोई उन्हें पुकार लेता है और …’’
अंजली भाभी ने मेरी बात काटते हुए कहा … ‘‘षेखर का राजकीय सेवा में होना और निहत्थे लड़ाई के घोर शारीरिक परिश्रम के अत्यंत कष्टसाध्य प्रषिक्षण में आना प्रमाण है कि वे अनासक्त, विरक्त और वियोगी नहीं है अरूणिमा!! मेरा मनोवैज्ञानिक आंकलन यह कहता है कि शेखर योग के पांचवें सोपान ‘प्रत्याहार’ पर आरूढ होने का अभ्यास कर रहे हैं।’’
मेरे लिये योग एक अनछुआ विषय था और ‘प्रत्याहार’ शब्द से तो मैं बिल्कुल अपरिचित थी। मैने नींद से बोझिल होती आंखों को बंद करते हुए उत्सुकता से केवल इतना ही कहा … ‘‘प्रत्याहार?’’
मुझे अंजली भाभी में एक ऊर्जा प्रवेष करती हुई दिखी। अंजली भाभी जैसे अंजली भाभी नहीं रह गयी थी, उनकी आकृति बदलने लगी और सिद्धेष्वर महादेव मंदिर के उस मायावी योगी का धुंधला-धुंधला अक्स प्रकट होने लगा। जो कह रहा था … ‘‘हां मंदाकिनी, योग नगरी में प्रवेष करने के यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार में प्रत्याहार पांचवा दुर्गम द्वार है। जो साधक जीवात्मा इस पांचवे द्वार को पार कर लेता है वह धारणा के आंगन में ध्यान अवस्था में बैठा हुआ समाधि द्वारा केवल्य को प्राप्त कर आत्मा और परमात्मा के भेद को समाप्त कर उस परमतत्व से एकात्म हो जाता है।
यदा संहरते चायं कूर्माेऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।
ज्ञाननिष्ठा में स्थित हुआ संन्यासी जब कछुए ंकी भाँति सब ओर से अपने अङ्गों को संकुचित कर लेता है उसी तरह साधक जीवात्मा वासनाओं की ओर जो इंद्रियाँ निरंतर गमन करती रहती हैं, उनकी इस गति को अपने अंदर ही लौटाकर आत्मा की ओर लगाना या स्थिर रखने का प्रयास करना प्रत्याहार है। संक्षेप में यह कि सम्पूर्ण विषयों से सब ओर से इन्द्रियों को इन घातक वासनाओं से विमुख कर अपनी आंतरिक प्रज्ञा की ओर मोड़ देने का प्रयास करना ही प्रत्याहार है।’’
अब तक मुझ में एक षिष्य भाव जागृत हो चुका था। मैंने उस अक्स को प्रणाम करते हुए जिज्ञासा पूर्वक प्रष्न किया … ‘‘किंतु यह कैसे संभव है कि क्षुधाग्नि से पीड़ित किसी जीव के समक्ष उसकी रूचि के स्वादिष्ट आहार लक्ष्य उसके सामने हो और वह उस का संधान नहीं करे? उस का भक्षण नहीं करे?’’
उस अक्स की शब्द ध्वनि व्योंम में गूंज रहे ओंकार की भांति मेरे कर्णकूपों के मार्ग से मेरी आत्मा के सागर में व्याप्त होते प्रतीत हुए … ‘‘लक्ष्य चाहे सांसारिक हो, आर्थिक, भौतिक, शारीरिक, आत्मिक अथवा आध्यात्मिक!! पंच इन्द्रियों की शक्ति संगठित रूप से एक ही दिषा में गतिषील हों तो लक्ष्य संधान अषक्य हो जाता है। यह जीवात्मा के लक्ष्य पर निर्भर करता है कि वह अपनी इन्द्रियों की शक्ति का प्रयोग खंड-खंड रूप से काम, क्रोध, लोभ, मोह और अह ंके बाह्य सुखों की प्राप्ती के लिये करता हुआ महत्वाकांक्षा की निरूद्देष्य प्रतिस्पर्धा से रोग, व्याधि और चिंता को आमंत्रित करे अथवा इन्द्रियों के व्यर्थ स्खलन को रोक कर उनका समन्वित उपयोग आत्मोद्धार के लिये करे।’’
प्रत्याहार को जानने के लिये मेरी जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी लेकिन मन में कहीं प्रत्याहार के विरोध का बीज अभी शेष था।
मैंने पूछा … ‘‘इन्द्रियों के खंड-खंड उपभोग में क्या हानि है? और उस हानि से कैसे बचा जा सकता है?’’
योगी के शब्दों की फुहार मनोकामना की स्वार्थी धरती में सुप्त बीजों को प्रस्फुटित कर रही थी। वे बोले … ‘‘पांचों इनिद्रयों में आँखें रूप को, नाक गंध को, जीभ स्वाद को, कान शब्द को और त्वचा स्पर्श का भोग करती है। भोगने की यह वृत्ति जब संतृप्ति के बिंदू का अतिक्रमण करती है तो भोग के प्रति मन में विकार की उत्पत्ति होती है। भोग का यही विकार इंद्रियों की षिथिलता के कारण मन को विक्षिप्त करता है। मन की यही विक्षिप्तता, व्यग्रता तथा व्याकुलता आत्मतत्व की शक्ति के क्षय में परिणित हो जाता है।’’
‘‘आत्मतत्व की शक्ति के क्षय को रोकने के लिये युक्तियुक्त आहार-विहार व समुचित निद्रा से शरीर व मन को स्वस्थ रखते हुए इंद्रियों को भोगों से दूर करने तथा इंद्रियों को स्थिर रखने के लिए उनकी प्रवृत्ति को भीतर की ओर मोड़कर प्राणायाम द्वारा प्राण और अपान वायु की क्षति के संरोध का अभ्यास करना चाहिए। प्राणायाम के अभ्यास से इंद्रियाँ स्थिर हो जाती हैं क्योंकि प्राण और अपान वायु का क्षरण रूक जाने से सभी विषय समाप्त हो जाते हैं। अतः प्राणायाम के अभ्यास से प्रत्याहार की स्थिति अपने आप बनने लगती है। इसीलिए इंद्रियों के व्यर्थ स्खलन को रोक कर उन्हें उस दिशा में लगाना चाहिये जिससे नैसर्गिक सनातन आनंद का सुख और शांति प्राप्त हो। जिस प्रकार आधी खिंची हुई प्रत्यंचा से फेंका गया वाण लक्ष्य तक नहीं पहुंचता और बीच में ही वायु से विचलित हो जाता है उसी प्रकार इन्द्रियों रूपी प्रत्यंचा को सम्यक रूप से खींचकर लक्ष्य का संधान ही प्रत्याहार है।’’
‘‘स्मरण रहे कि यम, नियम, आसन और प्राणायम के द्वारों को पार करते हुए प्रत्याहार के पांचवे द्वार की कुंजी स्वतः ही प्राप्त हो जाती है जिसके प्रयोग से साधक में पवित्र ऊर्जा का स्तर बढ़ जाने से उसके आभा मंडाल में विस्तार हो जाता है। इस आभा मंडल में शारीरिक और मानसिक रोग व विकारों के प्रवेष का मार्ग नहीं होता। इस का आगे प्रभाव यह होता है कि साधक के आत्मविश्वास और विचार क्षमता में वृद्धि हो कर धारणा के छठे द्वार का मार्ग प्रषस्त होता है जो ध्यान के अनंत अंतरिक्ष में छलाँग लगाने के लिए तैयार होने की स्थिति है।’’
मैं उस धंुधले अक्स के आभा मंड़ल में झांक कर उसका स्पष्ट रूप देखने के प्रयास में आधी बात समझी और आधी नहीं लेंकिन सत्य को धारण और पुष्ट करने वाली मेरी सात्विक व निर्मल चित्तवृत्ति वाली विकसित हो रही प्रज्ञा ऋतंभरा ने पूछा … ‘‘वासना के सुखोपभोग में लिप्त इन्द्रियों का आनंद की उस स्थिति से प्रत्याहरण इतना सुगम तो नहीं है। क्या इस का कोई विकल्प भी है?’’
कभी समीप कभी दूर जाते उस अक्स की आवाज़ में मैं भी स्वयं से कभी दूर कभी पास आती उसे सुनने और समझने का प्रयास कर रही थी और वो रहस्यमयी अक्स कह रहा था … ‘‘प्रकृति में कोई भी विषय, वस्तु और उनके गुण व आकृति एक जैसे नहीं है किंतु इसका अर्थ यह नहीं कि पृकृति उन्हें विकल्प रहित बनाया हो किंतु अपनाये गये विकल्पों की लेषमात्र त्रुटि भी अनर्थ कर सकती है। योग के सोपानों का भी विहित अभ्यास तो साधक के लिये क्षेम प्रदान करता है किंतु योग्य मार्गदर्षक के अभाव में अपनाये गये लधुमार्ग का विकल्प साधक को कठिन आपदा में डाल सकता है।’’
‘‘दूसरे विकल्प को अपनाने से पहले यह जान लेना आवष्यक है कि जिस काल में भौतिक जगत के सब प्राणी जागते हैं वह काल मननषील मुनियों और तत्वदर्षी के लिये अज्ञान से आवृत रात्रि है और सब प्रणियों के लिए जो रात्रिकाल है, उसमें संयमी अर्थात इन्द्रिय निग्रही पुरुष जागता है। क्योंकि अज्ञानी पुरुष ्को अपने मन के रंग में रंगकर देखने का अभ्यासी होने से जगत् को यथार्थ रूप में कभी नहीं देख पाता और फिर बाह्य वस्तुओं को ही दोषयुक्त समझता है। रंगीन कांच के पीछे से जगत् को देखने पर वह रंगीन ही दिखाई देगा किन्तु जब कांच को हटा देते हैं तब जगत् के यथार्थ रूप की प्रतीती होती है। स्मरण रहे कि शरीर मन और बुद्धि के माध्यम से जगत् को देखने पर वह स्वाभाविक रूप से परिच्छिन्न और दोषयुक्त उपाधियों व स्वरूप से अनुभव में आता है किन्तु स्थितप्रज्ञ पुरुष अपनी ज्ञान की दृष्टि से जगत को देखता है इसलिये उसे पूर्णत्व और आनन्द का ही अनुभव होता है।’’
”प्रत्याहार का विकल्प यह है कि भौतिक जगत की रात्रि की विकाररहित नीरवता में ध्यान और प्रत्याहार का संयुक्त अभ्यास करे किंतु ये उपाय किसी समर्थ मार्गदर्षक के सानिध्य में ही किया जाए अन्यथा परिणाम में घोर मानसिक विकृति प्राप्त होने की प्रबल आषंका होती है। पवित्र स्थान पर शक्ति का कुचालक आसन बिछा कर काया, जिव्हा और षिर को एक सीध में ले कर आंखों की दोनों पुतलियों को भ्रुमध्य में लाते हुए नासिका के अग्रभाग को देखते हुए धीरे-धीरे अपने ही भीतर झांकने का अभ्यास करे। ऐसे अभ्यास करने वाले योगी के संकल्प मात्र से ही प्रत्याहार सिद्ध हो जाता है। फिर लक्ष्य चाहे सांसारिक हो या आध्यात्मिक, प्रत्याहार ऐसी प्रत्यंचा है कि बाण यदि उससे छूटा तो मुक्ति के लक्ष्य संधान में कोई बंधन व्यवधान नहीं रह जाता।’’
रहस्यमयी अक्स के अंतिम शब्दों से मेरे अंदर एक सिहरन सी हुई और मैंने बहुत दबे हुए स्वर में पूछा … ‘‘तो क्या शेखर भी किसी बंधन से मुक्त होने के लिये प्रत्याहार का अभ्यास कर रहे हैं?’’
मेरी आवाज़ अंजली भाभी के स्वर में दब कर रह गयी जो मुझे झिंझोड़ कर जगा रही थी … ‘‘अरूणिमा!! अरूणिमा!!! अब उठो भी अरूणिमा, क्या बड़बडा रही हो? तुम्हारी तबीयत तो ठीक है? रावण दहन देखने नहीं चलोगी क्या?’’
मैंने कुछ सुना कुछ नहीं सुना, मेरे कानों में तो उस मायावी योगी के शब्द ही गूंज रहे थे ‘‘शेखर के जीवन का लक्ष्य कल्याण के षिखर को प्राप्त करना है, उसके मार्ग में बंधन का शूल मत बनो। उसे मुक्त कर दो, उसे मुक्त कर दो। प्रत्याहार ऐसी प्रत्यंचा है कि बाण यदि उससे छूटा तो मुक्ति के लक्ष्य संधान में कोई बंधन व्यवधान नहीं रह जाता। प्रत्याहार ऐसी प्रत्यंचा है कि बाण यदि उससे छूटा तो मुक्ति के लक्ष्य संधान में कोई बंधन व्यवधान नहीं रह जाता। प्रत्याहार ऐसी प्रत्यंचा है कि बाण यदि उससे छूटा तो मुक्ति के लक्ष्य संधान में कोई बंधन व्यवधान नहीं रह जाता। प्रत्याहार ऐसी प्रत्यंचा है ….. प्रत्याहार!!!’’
मैं उस गूंज से घबरा कर अपने कान बंद कर के लगभग चीखते हुए ‘‘नहीं, नहीं’’ बोली तो अंजली भाभी ने मुझे पकड़ कर गले लगाया और दुलारते हुए कहा … ‘‘क्या हुआ अरूणिमा? कोई डरावना स्वप्न देखा क्या?’’
मैनें अंजली भाभी को सब बताया तो उन्होंने कहा … ‘‘षेखर की छवि ने तुम्हारे मन और मस्तिष्क पर इतनी आच्छादित हो गयी है कि तुम्हारा स्व उस वृत में बंदी हो गया है। जिसके कारण तुम्हारे अवचेतन मन में बैठा हुआ शेखर को खो देने का भय मुखरित हो उठता है। इसका उपचार यह है कि शेखर के मुखरित हो रहे विषय को धूमिल करने के लिये तुम अपने अंदर के षिल्पकार को जीवित करो। तुम्हारे रंग, ब्रष और केनवास तुम्हारे बिना बहुत उदास और उत्साहीन हो कर तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। अभी उठो और रावण दहन देखने चलने के लिये तैयार हो जाओ।’’
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