मंदाकिनी पार्ट 13 / Mandakini part 13

इस कहानी को मैंने आधी हकीकत आधा फसाना ऐसे ही नहीं कहा कोई भी ज्योतिषीय गणना करने वाला अपने पत्रों को उठाकर देख सकता है कि सितंबर के आखिरी शनिवार को नवरात्रि किस वर्ष में प्रारंभ हुए थे और उसके बाद दुर्गा अष्टमी महा नवमी और दशमी रविवार सोमवार मंगलवार को किस वर्ष में हुई थी और दुर्गा विसर्जन का मुहूर्त मंगलवार की सुबह 6:16 से 8:36 तक किस वर्ष में था। इस कहानी का आधी हकीकत का भाग उसी वर्ष का है।
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वनपाल जीप लेकर तैयार था। शेखर ड्राईविंग सीट पर बैठे, मैं आगे और वनपाल पीछे बैठ कर उसी रास्ते से हम फॉरेस्ट गेस्ट हाउस पहुंचे। रास्ते में शेखर की चुप्पी मुझे खल रही थी लेकिन मैंने वनपाल की उपस्थिति को उस चुप्पी का कारण समझा। रेंजर विहान नौटियाल अभी तक नहीं आए थे। शेखर ने घडी में टाइम देखा, दोपहर का एक बज चुका था। समय की कमी बताते हुए शेखर ने रेंजर विहान नौटियाल से फिर कभी मिलने का कहा तो वनपाल ने चाय-नाष्ते के बिना जाने देने पर उसने विहान नौटियाल साहब के नाराज़ होने की बात कही और गेस्ट हाउस के पीछे की तरफ बरामदे में खुलते हुए एक कमरे का ताला खोलते हुए हमें विश्राम करने को कहा। बरामदे से जंगल का दृष्य बहुत मनोरम दिख रहा था, बारिष से नहाये चमचमाते पत्तों पर पसरी हुई धूप छनकर बरसाती नदी की कलकल में झिलमिलाती हुई नाच रही थी, चिडियों की चहचहाहट और गेस्ट हाउस की बालकनी से मधुमालती के आधे सफेद आधे गुलाबी फूलों से भीनी भीनी सुगंध में लिपटी हवा की सरसराहट कानों में गीत गुनगुना रही थी। मैं तन्मय हो कर वन के उस सौंदर्य को निहार रही थी तब शेखर ने मेरी तन्मयता को भंग करते हुए बरसादी नदी के बीच में एक बडी सी चट्टान पर आपस में रस्सी की तरह लिपटे साथ-साथ रेंग रहे दो सांपों की ओर संकेत करते हुए उधर देखने को कहा। मेरे अंदर उठी सिहरन के कारण मैं शेखर से सट कर देखने लगी तो शेखर ने वनपाल से बरामदे में ही कुर्सी टेबल लगा देने को कहा और कमरे से जुडते बाथरूम में हाथ धोने चले गये।
वनपाल बरामदे में कुर्सी टेबल लगा कर कुछ ही देर में चाय नाष्ता ले आने के लिये कह कर जा चुका था। मैं कमरे में दीवारों पर लगी वन्यजीवों की पेंटिंग्स देख रही थी, तब शेखर ने मेरे पीछे आ कर कहा … ‘‘क्या सितमगर अपने हाथ नहीं धोएंगे?’’
मैं शेखर की चुप्पी को टूटते देख शेखर की तरफ पलटते हुए उन्माद में बोली …
‘‘क़ातिल मक़्तूला को कह रहे हैं सितमगगर।।
रहम, रहम ज़िल्ल ए इलाही, रहम बंदा पर्वर।।’’
शेखर ने मेरी आंखों में देखते हुए कहा …
‘‘वो अपनी जफ़ाओं पे पशेमां नहीं होते।।
क़त्ल करते हैं, मगर खंजर नहीं धोते।।’’
मैंने लगभग समर्पण करते हुए शेखर के पास आ कर कहा … ‘‘अच्छा जी मैं हारी बाबा, मंदिर से यहां तक तो ऐसे चुप और गुमसुम थे जैसे सांप सूंघ गया हो। अब इतने रोमांटिक हो रहे हो लेकिन ये तो बताओ मैंने कौन सा क़त्ल कर दिया, किस का ख़ून मेरे हाथों में है।
शेखर ने स्पष्ट करते हुए कहा … ‘‘सुबह से निकले हैं। डॉक्टर थपलियाल के हॉस्पीटल, मंदिर में भी इधर-उधर हाथ लगे हैं और तुम्हारे नाख़ून तो मेरे ख़ून से भी रंगे हैं। अब इतनी निर्दयी भी ना बनो कि रक्त सने हाथों से खाते देख कर तुम्हारे जानवर होने का अहसास हो।’’
मैंने आष्चर्य मिश्रित रूमानियत से कहा … ‘‘मेरे नाख़ून में तुम्हारा ख़ून?
शेखर ने अपना बाएं हाथ पर खरोंच के निषान दिखाते हुए पूरी तरह से स्पष्ट किया … ‘‘याद करो, यहां से जाते समय बाघ को देख कर तुमने ये हाथ इतना कस कर पकडा कि तुम्हारे नाख़ून …।’’
मैंने शेखर के घावों को चूम कर आंखो से लगाया और उनके वक्ष से लग कर मेरे रक्त भरे नाखून उनके सीने पर फिराते हुए कहा … ‘‘ओह शेखर, मेरे नाख़ून तो सिर्फ़ तुम्हारे हाथ में चुभे हैं लेकिन तुम्हारे शब्द और एक-एक बात की स्मृतियां जलते हुए तीरों की तरह मेरे दिल में धंसी हैं। तुम्हारे हाथ का घाव तो कुछ दिन में ठीक हो जाएगा लेकिन मैं इन तीरों का क्या करूं जिन्हें निकालने की कोषीष करती हूं तो ये और गहरे बैठ जाते हैं?
शेखर ने मुझे गले लगाये पलंग पर बैठते हुए कहा … ‘‘यही मैं सोच रहा हूं मंदाकिनी, कि हम जाने अन्जाने उस रास्ते पर चल रहे हैं जो हमें किसी लक्ष्य पर तो नहीं ले जायेगा लेकिन …।’’
मैंने शेखर की बात काटते हुए कहा … ‘‘लक्ष्य तुम्हारे समीप है शेखर, बस एक क़दम की दूरी पर। अंजली भाभी ने कल रात हमें देख लिया है और जल्दी ही वो राघव भैय्या और मां से बात करेगी। दो दिन बाद बाबूजी आने वाले हैं और …।’’
शेखर ने मेरी बात काटते हुए कहना चाहा … ‘‘लेकिन अरूणिमा मैं …।’’
मैंने फिर शेखर की बात काटते हुए उदास आंखों में आंखें डाल कर अपनी तर्जनी अंगुली उनके होंठों पर रखी और उन्हें धीरे से बिस्तर पर धकिया कर उनके वक्ष को चूमते हुए कहा … ‘‘लेकिन कुछ नहीं शेखर!! मैं जानती हूं, हमारी मित्रता को दाम्पत्य अधिकार केवल समाज द्वारा दिया जा सकता है। इसलिये तुम्हें भी अपने परिवार से स्वीकृति लेनी होगी।’’
फिर मैंने अपना पूरा शरीर शेखर पर लादते हुए उन्हें अपने दोनों हाथ दिखाते हुए कहा … ‘‘यही हमारे सामाजिक प्रबंध का दर्षन है शेखर, जिस प्रकार एक हाथ में मेंहदी लगी होने से दूसरा हाथ स्वयं को नहीं धो सकता वैसे ही हमारे संबंध के लिये केवल मेरे परिवार की स्वीकृति पर्याप्त नहीं है।’’
शेखर ने मेरा चेहरा अपने हाथों में ले कर रूंधते हुए गले से बहुत दर्दीले स्वर से कहा … ‘‘सत्य कल्पनाओं से सदा सर्वदा अधिक आष्चर्यजनक, निष्ठुर और कठोर होता है मंदाकिनी। कल्पनाओं के पंखों पे सवार आसमान में आषियाना बनाने के लिये ऊपर बहुत ऊपर तो पहुंच जाते हैं लेकिन जब ये सत्य सामने आता है कि आसमानों में किसी का आषियाना नहीं होता तो …।’’
कहते हुए शेखर की आंखें छलछला गयी, वो ना मालूम क्या कहना चाह रहे थे। मैंने उनकी बात को केवल एक दार्षनिक कवित्त समझा और उनकी छलछलाई आंखों को चूमते हुए कहा … ‘‘फिर भी ऊंचे उड़ने वालों के उत्साह में कमी नहीं होती। सत्य क्या है, ये तो कोई नहीं जान पाया लेकिन प्रयास समाप्त नहीं हुए और आसमान में घर तलाषते हुए हम चांद तक जा पहुंचे।’’
शेखर ने एक लंबी सांस ली जो मेरे कानों के पास बिखरी अलकों को सहलाते हुए कुछ कह गयी जिसे मैंने अपनी कल्पना के प्रवाह में आमंत्रण समझते हुए शेखर के कांपते होंठों को चूमते हुए कहा … ‘‘मेरे शषिषेखर, सत्य कहने, सुनने और सहन करने के लिये सिद्धांत की नहीं बल्की साहस की आवष्यकता होती है। सत्य से कोई नहीं बच सकता इसलिये सत्य से टकराना नहीं चाहिये क्योंकि सत्य का प्रतिरोध ही सत्य को शक्तिषाली और प्रतिद्वंद्वी को शक्तिहीन बनाता है। सत्य पर विजय का आनंद प्राप्त करना हो चित् का समर्पण मात्र ही एक विकल्प है।’’
शेखर से लिपटते हुए मेरी आंखों में नाग-नागिन का वो दृष्य तैर रहा था। मैंने आंखें बद कर शेखर को अपनी ओर कसते हुए आगे कहा … ‘‘इस सतचित्त आनंद को प्राप्त करने के लिये मैं किसी भी सत्य को स्वीकार करने के लिये तैयार हूं और अभी का सत्य यह है, कि मेरा चांद मेरा शषिषेखर मेरे इतना पास है कि मेरा अस्तित्व उसमें घुलकर एकात्म हो रहा है।’’
शेखर भी मेरे प्रवाह में बहने लगे। मैं उनकी बलिष्ठ भुजाओं को अपनी पीठ पर कसते हुए अनुभव कर रही थी तभी एक मोटर साइकिल की आवाज़ ने निकट आ रहे सत्य का संकेत दिया तो शेखर ने कहा … ‘‘अभी का दूसरा सत्य यह है कि वनपाल चाय-नाष्ता ले कर आता ही होगा और ये मोटर साइकिल की आवाज़ शायद रेंजर विहान नौटियाल के आने का संदेष दे रही है।’’
आंखें खुली तो शेखर का चेहरा देख कर मेरी हंसी फूट पड़ी। मेरे माथे का सिंदूर और होठों की लिपिस्टिक का स्थानांतरण हो जाने से शेखर आधे हनुमानजी बन गये थे। वे जल्दी से बाथरूम में जा कर तौलिये से मुंह साफ़ किया और बाहर आये तो मैंने उन्हें बहुत संकोच के साथ दाहिने हाथ की कनिष्ठिका अंगुली और मेंहदी भरा बायां हाथ दिखाते हुए संकेत से बताया कि मुझे लधुषंका के लिये बाथरूम जाना है लेकिन मेंहदी के कारण नीविबंधन की समस्या है। शेखर ने निर्णय लेने में देर नहीं की और मेरे पीछे से अपने दोनों हाथ सामने ला कर मेरे कुर्ते के नीचे से नीवि को खोलते हुए कहा … ‘‘तुम्हारा बंधन तो मैंने खोल दिया मंदाकिनी, अब तुम्हें मेरा बंधन खोलना होगा।’’
मैं शेखर के त्वरित निर्णय और नितांत निसंकोच मर्यादा की लक्ष्मण रेखा को छूने के अधिकारपूर्ण साहस पर हत्प्रभ थी। एक क्षण के लिये मेरी सांस अटक गयी और मेरे पीछे होने के कारण मैं शेखर के चेहरे के भावों को नहीं पढ पाई कि उन्होंने किस भावना से ये शब्द कहे। शेखर कमरे के बाहर बरामदे में बैठ गये और मैं बाथरूम में चली गयी।
लघुषंका से निवृत होने के बाद भी समस्या जस की तस थी और मैं समझ नहीं पा रही थी कि मेंहदी के हाथ से नीविबंधन कैसे होगा तभी बाथरूम के दरवाज़े पर हल्की थपथपाहट के साथ मीना की आवाज़ से मैं सिहर गयी। पहले मैंने सोचा कि शेखर ही मीना की आवाज़ बना कर बोल रहे हैं लेकिन दूसरी बार मैंने साहस कर के दरवाज़ा खोला तो मीना ने नीविबंधन में मेरी सहायता की और हम दोनों बाहर बरामदे में आये तो शेखर अकेले बैठे हुए थे।
मीना बता रही थी कि आसरोदी से डेढ-दो किलोमीटर दूर ही उसका गांव मौहम्मदपुर है। रेंजर विहान नौटियाल उसके कॉलेज टाइम के मित्र हैं और आज चंद्रवदनी माता के वन क्षेत्र में किसी बाघ के देखे जाने की सूचना गांव वालों को देने आये थे। मैंने उन्हें चाय नाष्ते के लिये पूछा तो उन्होंने बताया कि उनके अधिकारी माघव साहब का परिवार गेस्ट हाउस में आने वाला है तो वो भी उनके साथ चली आई। शेखर नदी के बीच में चट्टान पर अब तक आपस में लिपटे हुए नाग-नागिन को देख रहे थे। इतने में रेंजर विहान नौटियाल भी आ गये और दो-तीन मिनट औपचारिक बातचीत में माधव भाई साहब का आज सुबह ही हम चारों के आने का संदेष और राघव भैय्या और अंजली भाभी के नहीं आने के कारण का खुलासा और परिचय आादि बातें होते-होते ही वनपाल ने डाइनिंग हॉल में चाय नाष्ता लग जाने की सूचना दी।
लगता था जैसे पहले से तैयारी कर रखी थी। डाइनिंग टेबल पर जंगली कडकनाथ काले मुर्गे का भुना हुआ गोष्त, मंडवे की रोटी, चौसोणी, कंडाली का साग, गहत की दाल और मेरी पसंदीदा झंगूरे की खीर और भांग की चटनी तथा फलों में बेडू, तिमला, मेलू, काफल, अमेस, दाड़िम, खुबानी, हिंसर, तूंग, खड़ीक, भीमल, आमड़ा, कीमू, भमोरा, भिनु तािा किनगोड़ और खैणु का ज्यूस देख कर शेखर ने व्यंग करते हुए कहा … ‘‘भई चाय नाष्ता मेरे बस की बात नहीं है, मैं तो बस पेट भर कर खाना खा लूंगा।’’
टेबल के एक तरफ रेंजर विहान और मीना तथा दूसरी तरफ मैं शेखर के बाईं ओर बैठी थी। मीना और मैं सब की प्लेट में खाना परोसने लगी। एकदम से न समझ में आने वाला शेखर के व्यंग का रेंजर विहान नौटियाल ने अनौपचारिक होते हुए उसी लहज़े में उत्तर देते हुए कहा … ‘‘अरे साहब जंगल में कहां चाय-नाष्ता, यहां तो पेट भर जाए इतना काफ़ी है। लेकिन राघव भाई और अंजली नहीं आए तो जो बच जाए वो उनके लिये ज़रूर ले जाना।’’
मीना ने अपनी प्लेट में कडकनाथ का भुना हुआ गोष्त लेते हुए कहा … ‘‘हां अगर मैं छोड दूं तो!! वो दो नहीं आए तो मैं अकेली उनके बराबर आ गयी ना।’’
खाना खाते हुए हमें डाट काली मंदिर के रास्ते में बाघ और यहां नाग-नागिन के प्रणय दर्षन की बात चली तो रेंजर विहान नौटियाल ने बताया … ‘‘वन और वन्य जीवन विभिन्नता और विचित्रताओं से भरा हुआ है। वन सेवा में रहते हुए बहुत कम समय में मुझ में मानव संस्कृति और वन की पृकृति में एक सेतु दर्षन विकसित हुआ है। संक्षेप में जिसका सार यह है कि वन्य जीवन में प्राकृतिक संस्कृति अक्षुण रूप से विद्यमान है जब कि मानव की विकसित संस्कृति में वन की पाष्विक पृकृति उत्तरोत्तर बढती जा रही है।’’
मीना ने रेंजर विहान नौटियाल को टोकते हुए कहा … ‘‘हे ज्ञानी विहान, तुम्हारी बात केवल दूसरे ज्ञानी शेखर को समझ आ रही है, थोड़ा हम अज्ञानियों की तरफ भी देखो और सरल शब्दों में कहो।’’
रेंजर विहान ने कडकनाथ की एक बोटी चबाते हुए विषय को सरल शब्दों में बताना प्रारंभ किया … ‘‘जिन्हें तुम सरल शब्द कह रही हो वो कहने सुनने में ओछेपन को प्रतिध्वनित करते हैं, निर्णय तुम्हारा है।’’
मीना ने हंसते हुए कहा … ‘‘ओछे ही सही, ओछे होने से बुद्धि के भवन में प्रवेष तो शीघ्र कर जाएंगे। अर्थात समझ में तो जल्दी आ जाएंगे।’’
रेंजर विहान ने बेडू का एक टुकडा खाते हुए कहा … ‘‘तो सुनो! जगत का सारा प्रपंच क्षुधापूर्ति के वृत में घूम रहा है। फिर ये क्षुधा चाहे उदरपूर्ति के लिये भोजन की कामना हो या उदर से नीचे स्नायुतंत्र में उद्वेगजनित शारीरिक इच्छाओं के द्वारा मन में उठने वाली वासना हो। दोनों ही विषयों में वन्य जीवों को पृकृति ने संस्कार दिये हैं कि ये अकारण किसी पर आक्रमण नहीं करते। ये आक्रमण तब ही करते हैं जब वे भूखे हों, भयभीत हों या घायल हों। जबकि मानवों की विकसित संस्कृति ने उनकी पृकृति को साम्राज्यवादी बना दिया जिसकी पाष्विकता की सीमा का निरंतर विस्तार हो रहा है जिसमें पृकृति की वन संस्कृति का साम्राज्य भी संकुचित होता जा रहा है। पृकृति की संस्कृति में रह रहे पशु-पक्षियों के न केवल आहार-विहार, सोने-जागने यहां तक कि प्रजनन के साथी निष्चित हैं बल्की उनका समय भी निष्चित है। घास खाने वाला मांस नहीं खाता और मांस खाने वाला घास नहीं खाता। अपवाद स्वरूप श्वानों को छोड कर सभी पशु भूख लगने पर ही खाना खाते हैं, सूर्य अस्त होने के बाद नहीं खाते और उसका संग्रह नहीं करते। बहुत सुंदर होने पर भी शेर हिरनी के साथ गमन नहीं करता यहां तक कि कायिक क़द-काठी व भाषा एक होने पर भी तोता और मैना संसर्ग नहीं करते, मैथुन योग्य वयस्क मादा के शरीर से स्त्रावित होने वाली कामगंध के आमंत्रण पर ही नर उसके समीप जाता है। और तो और इन सब के प्रजनन का समय निष्चित है। उदाहरण के लिये आज जिन नाग नागिन को आप ने प्रणय क्रीडा करते देखा, ये दीपावली के दूसरे दिन से बिलों में चले जाते हैं और होली के दूसरे दिन बाहर निकलते हैं। ये ज्येष्ठ और आषाढ मास में ही मैथुन करते हैं और वर्षाकाल के चार महीने अर्थात आषाढ, सावन, भादौ और आष्विन में नागिन गर्भीणी रहती है और कार्तिक मास में अण्डे देती है।’’
हम रेंजर विहान के वन दर्षन को आत्मसात कर रहे थे और विहान मंडवे की रोटी का एक कौर कंडाली के साग में डुबो कर मुंह में गटक कर बोले … ‘‘अब मानव समाज की बात करें तो पृकृति के समस्त नियम मानव समाज की कथित संस्कृति में खण्डित हो कर समय-असमय उदरपूर्ति और उदरपूर्ति के बाद सर्वाधिक गतिषीलता केवल मैथुनिक क्रियाकलापों में होती है। पशु-पक्षियों में जहां यह गतिषीलता प्राकृतिक आवष्यकता है वहीं मानव समाज में यह एक मानसिक कुंठा का प्रदर्षन है। जिस मानव को भोजन और मैथुन उपलब्ध नहीं है वह आपराधिक तरीके से इसे प्राप्त करता है और जिसे प्राप्त है वह इसे अधिक सुविधा व विलासितापूर्वक भोग करने का प्रपंच करता रहता है।’’
रेंजर विहान नौटियाल और न मालूम क्या कहते लेकिन इससे पहले ही मीना ने हास्यपूर्वक विहान को संबोधित करते हुए कहा … ‘‘और इसमें हम भी शामिल हैं विहान, कि दाल, रोटी, साग और चटनी से पेट भर सकता था लेकिन अतीथि सत्कार की संस्कृति के नाम पर खाने की इतनी सारी चीजेें?”
और हंसते-हंसाते खाना खाते हुए दो बजने वाले थे। रेंजर विहान की गंभीर चर्चा का मीना के हास्य में पटाक्षेप हो गया तो मीना ने बात आगे बढाई … ‘‘ जब विहान ने बताया कि माधव साहब की फेमिली आ रही है तो मैंने विहान से कहा था कि उस फेमिली में एक कवि, बांसुरीवादक और दार्षनिक शेखर भी है। तुम कोई ज्ञानचर्चा शुरू मत कर देना नहीं तो धीमी गति के समाचारों में शांम हो जाएगी। अब विहान ने तो बात नहीं मानी लेकिन अब शेखर से विनम्र निवेदन है कि इन क्षणों को अपनी कविता से रोमांटिक यादगार बना दें।’’
शेखर ने कहा … ”काल्पनिक छायावादी कविता सुनाउं या यथार्थ।”
मीना भी जैसे साहित्यकार हो गयी थी। बोली … ”वो कल्पना ही क्या जिसमें यथार्थ की झलक ना हो।”
शेखर ने गुनगुनाना शुरू किया …
ऊपर है आकाष खुला
नीचे है पाताल बला
बायें दिल में आग लगी
दायें भी कोई ठौर नहीं
खडे अकेले राहों में
संग में साथी और नहीं
आगे खड्डा पीछे खाई
हाय ये कैसी आफ़त आई
बता ऐ दिल मैं क्या करूं
मारा मारा कहां फिरूं
तेरा एक सहारा था
तू ही एक हमारा था
तू भी आज हमको छोड चला
नाते सारे तोड चला
इतने पास से मुलाक़ात हुई
फिर भी ना कोई बात हुई
वो सर को झुका कर खडे रहे
हम नज़रें बचा कर चले गये
आकाष का कोई छोर नहीं
इतनी लम्बी डोर नहीं
इतनी लम्बी डोर नहीं
इतनी लम्बी डोर नहीं
शेखर की इस कल्पना में घुले यथार्थ को बस मैं समझ रही थी। मेरे हाथ धुलाते हुए मैंने मीना को बताया कि सुबह निकलने में पन्द्रह सेकेंड की देरी के दंड स्वरूप शांम को मुझे नृत्य करना होगा तो उसने शैतानी से मेरे कपोलों पर चिकौटी भरते हुए कहा … ‘‘अहा, हमारी लाडो का नृत्य तो हम भी देखेंगे भई।’’
रेंजर विहान नौटियाल से विदा ले कर मीना भी हमारे साथ रवाना हो कर रास्ते में मौहम्मदपुर में मीना के घर होते हुए उसका सामान ले कर हम पलटन बाज़ार स्थित काली मंदिर के लिये चले। मोटर साइकिल पर मैं बीच में शेखर की कमर में दाहिना हाथ लपेटे कुछ सूख चुकी कुछ गीली मेंहदी वाला बायां हाथ उनके कंधे पर रखे बैठी थी और मीना पीछे से बार बार मुझे गुदगुदाती तो मेरे कसमसाने से शेखर की पीठ पर मेरा स्पर्ष उन्हें विचलित कर जाता। तंग आ कर मैंने शेखर से गाडी रोकने के लिये कह कर मीना को बीच में बैठने के लिये कहा तो मीना की अक्ल ठिकाने आ गयी।
पलटन बाज़ार काली मंदिर पहुंचे तो राघव भैय्या और अंजली भाभी भी थोडी देर पहले ही पहुंचे थे और पुजारीजी से दुर्गा विसर्जन का मुहूर्त पूछ रहे थे। मुख्य पुजारीजी व्यस्त थे और प्रषिक्षु पुजारी दुर्गा विसर्जन के मुहूर्त की गणना करने में भ्रमित हो रहे थे। बहुत प्रतीक्षा के बाद भी मुख्य पुजारी जी नहीं आ सके और प्रषिक्षु पुजारी कोई मुहूर्त निर्णय नहीं कर सके तब अंजली भाभी ने शेखर से कहा … ‘‘चार बजने को है और अभी बंगाली समाज का धुनोनाच और सिंदूर खेला शुरू होने वाला है फिर बाज़ार में खरीददारों की भीड के कारण निकलना मुष्किल होगा। शेखर भैय्या इतने ज्ञानी बने फिरते हो, दुर्गा विसर्जन का मुहूर्त नहीं बता सकते?’’
शेखर ने कृत्रित ऐंठ से शेखी दिखाते हुए कहा … ‘‘कोई पूछे तो सही, यहां तो घर को जोगी जोगडे और आण गांव के सिद्धों की पूछ हो रही है।’’
फिर शेखर ने प्रषिक्षु पुजारियों से पंचाग पत्रा ले कर देखा और अंगुलियों पर कुछ गणना कर के बोले … ‘‘सुनो, परंपरागत रूप से दुर्गा विसर्जन दषमी तिथि की अवधि में सुबह या दोपहर में की जाती रही है किंतु यदि श्रवण नक्षत्र और दषमी तिथि साथ-साथ दोपहर काल में चल रही हो तो सुबह के मुहूर्त पर अपरान्ह मुहूर्त को प्राथमिकता दी जाती है। संयोग से इस वर्ष दषमी तिथि सोमवार सांयकाल 06.16 बजे प्रारंभ हो कर मंगलवार सांयकाल 05.06 बजे तक होने और श्रवण नक्षत्र भी सोमवार सांयकाल 05.20 बजे प्रारंभ हो कर मंगलवार सांयकाल 04.56 बजे समाप्त होने से लगभग साथ-साथ चल रही है और सांयकाल 03.00 बजे राहू काल लग जाने व नौ दिन तक निराहार नवरात्री व्रत करने वालों का दुर्गा विसर्जन के पश्चात ही व्रत खोलने सहित दुर्गा विसर्जन और रावण दहन के मध्य पर्याप्त अंतराल रखे जाने की आवष्यकता को देखते हुए दुर्गा विसर्जन के सूर्योदय 06.16 से 08.36 के मध्य प्रातःकालीन मुहूर्त को प्राथमिकता दी जानी चाहिये।’’
प्रषिक्षु पुजारी हाथ जोडकर खडे हो गये तो हम सब ने समझा वो शेखर का अभिवादन कर रहे हैं। तभी पीछे से आवाज़ आई … ‘‘साधू, साधू, साधू।’’
मुख्य पुजारीजी ने पास आ कर शेखर से पूछा … ‘‘तुम ने बिल्कुल सही कहा बेटा, क्या नाम है तुम्हारा?
शेखर ने पुजारीजी के चरण छूते हुए अपना नाम बताया तो पुजारीजी ने केले में गोरोचन और केसर के मिश्रण से बना तिलक शेखर के माथे पर लगाते हुए कहा … ‘‘ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः, स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः, स्वस्ति नस्तार्क्ष्याे अरिष्टनेमिः, स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु, ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।’’
पुजारीजी ने हम सब को माता की चुन्नियां व फल और दोधिकोरमा का बहुत सारा प्रसाद दिया और शेखर को शॉल से सम्मानित कर आते रहने के लिये कहा। तभी बंगाली महिलाओं का धुनोनाच और सिंदूर खेला शुरू हो गया जिस में एक बार फिर हम सब के चेहरे भी सिंदूर से लाल हो गये। चार बजने को थे, पलटन बाज़ार में अंजली भाभी ने कुछ खरीददारी की, शांम को मेरा नृत्य देखने के लिये आने का कह कर मीना वहां से अपने घर चली गयी। हम घर पहुंचे तो मां शांम की आरती की तैयारी कर रही थी।
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